मान्यताओं के अनुसार सबसे पहले अत्रि मुनि ने श्राद्ध का उपदेश दिया था। इसके बाद सबसे पहला श्राद्ध महर्षि निमि ने निकाला था। बाद में धीरे-धीरे कई अन्य महर्षि भी श्राद्ध कर्म करने लगे और पितरों को अन्न का भोग लगाने लगे। जैसे-जैसे श्राद्ध की परंपरा बढ़ती गई देवता और पितर धीरे-धीरे पूर्ण रूप से तृप्त होते गए। जिसके बाद उन्हें भोजन को पचाने की समस्या सामने आने लगी, जिसका निवारण अग्नि देव ने निकला था |
हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी होता है। अगर किसी मृत व्यक्ति का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए, तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए पितरों की मुक्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए है।
श्राद्ध क्या होते है - ब्रह्म पुराण के अनुसार पितरों की तृप्ति के उद्देश्य से उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किये जाये उन्हें श्राद्ध कहते है |
"श्रद्धया पितृन उद्धिश्य विधिना क्रियते यतकर्म तत श्राद्धम " |
श्रद्धा शब्द से ही श्राद्ध की उत्पत्ति हुवी है | श्राद्ध में ब्राह्मणो के माध्यम से पितरों की तृप्ति के लिए भोजन कराया जाता है। पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन भी श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है। अपने मृत पितृगण के लिए श्रद्धा भाव से किये श्राद्ध को पितृ यज्ञ भी कहते है, जिसका वर्णन मनु स्मृति, वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता, श्राद्धतत्व, पितृदायिता आदि अनेक ग्रंथो में मिलता है |
महर्षि पराशर के अनुसार - देश, काल और पात्र में हविषादी विधि द्वारा तिल (यव ), और दर्भ (कुश, घास का तिनका) के साथ मंत्रो द्वारा किया गया श्राद्ध ही पितरों को मुक्ति दिलाता है |
पितरों को श्राद्ध की प्राप्ति कैसे होती है ?
यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गयी भेंट और अन्न आदि सामग्री पितरो को कैसे मिलती है | मृत्यु के बाद जीव को अपने अपने कर्मो के अनुसार गति मिलती है, कोई देवता बनता है, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई इंसान, कोई पशु - पक्षी, पेड़ तृण कुछ भी तो सबको अपनी योनि के हिसाब से श्राद्ध का फल मिल जाता है | इसमें अपनी गोत्र / जाति के अनुसार विश्व देव और अग्नितत्व उनको श्राद्ध की सामग्री प्राप्त करवा देते है | जातक देव योनि का है तो अन्न उसे अमृत के समान प्राप्त होता है, मनुष्य योनि में अन्न के समान और पशु पक्षी की योनि में तृण के समान, नाग योनि में वायु के रूप से और अन्य योनियों में उनके तृप्ति के समान उनको श्राद्धीय भोज प्राप्त होता है | नाम, गोत्र, हृदय की श्रद्धा और सही तरीके से लिए संकल्प को प्राप्त हो जाता है | जातक चाहे कितनी भी योनिया पार कर जाये उनके नाम का दिया श्राद्ध उसीको मिलता है, जिस प्रकार १ बछड़ा गोशाला में अपनी माँ गाय को ढूंढ लेता है उसी प्रकार श्राद्ध का सामान भी आपने जातक को मिल जाता है |
श्राद्ध की २ प्रक्रिया है - १. पिंड दान २. ब्राह्मण भोजन
मृत्यु के बाद जो लोग देव योनि या पितृ योनि में जाते है उनको मंत्रो द्वारा बुलाये जाने पर वह निमंत्रित ब्राह्मण के माध्यम से भोज कर लेते है | ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष श्राद्ध होते हैं।
श्राद्ध की संक्षिप्त विधि -
सामान्य रूप मे कम से कम वर्ष में दो बार श्राद्ध करना अनिवार्य है, इसके अतिरिक्त अमावस्या व्यतीपात. संक्रांति आदि पर्व की तिथियों में भी श्राद्ध करने की विधि है -
(1) क्षयतिथि - जिस दिन व्यक्ति की मृत्यु होती है उस तिथि पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिये | शास्त्रों में क्षय तिथि पर एकोछिष्ट श्राद्ध करने का विधान है, एकोछिष्ट का तात्पर्य है कि केवल मृत व्यक्ति के निमित एक पिण्ड का दान तथा कम से कम एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाय और अधिक से अधिक तीन ब्राम्हणों को भोजन कराया जाता है |
(2)पितृ पक्ष - पितृपक्ष में मृत व्यक्ति की जो तिथि आये, उस पर मुख्य रूप से पावॅण श्राद्ध करने का विधान है | यथासंभव पिता की मृत्यु तिथिपर इसे अवश्य करना चाहिए| पावॅण श्राद्ध में पिता, पितामह(दादा), प्रपितामह (परदादा) सपत्नीक अर्थात माता, दादी ओर परदादी, और नाना, नानी, परनाना और परनानी का भी, इस प्रकार तीन पीढ़ी में छः व्यक्तियों का श्राद्ध होता है। इसके अतिरिक्त एक ओर लगाया जाता है, जिस पर अपने निकटतम सम्बनिधयो के निमित पिण्डदान किया जाता है | इसके अतिरिक्त दो विश्वदेव के लगते है। इस तरह नौ श्राद्ध लगाकार पावॅण श्राद्ध सम्पन्न होता है, इसमें नौ ब्राह्मणो को भोजन कराना चाहिए | यदि कम कराना हो तो तीन ब्राह्मण ब्राह्मणो को ही भोजन कराया जा सकता है, यदि अच्छे ब्राह्मण उपलब्ध न हो तो कम से कम एक सन्ध्या वन्दन आदि करने वाले सात्विक ब्राह्मण को भोजन अवश्य कराना चाहिए |
पितृ पक्ष में दान का क्या महत्व है -
पितृ पक्ष में दान का भी बहुत महत्व है, मान्यता है की दान से पितरों की आत्मा को संतृष्टि मिलती है और पृत दोष भी खत्म होता है | क्या दान में देना चाहिए -
1. काला तिल - पितरों के तर्पण के निमित्त किसी भी चीज का दान करते समय काले तिल को लेकर दान करें काले तिलों का दान संकट और विपदाओं से रक्षा करता है |
2. चांदी - चांदी धातु से मिर्मित किसी भी वस्तु का देने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और साथ ही आर्शर्वाद प्राप्त होता है | चांदी देने से संबंध चंद्र ग्रह से है इसलिए श्राद्ध में चांदी, चावल और दूध से पितर को खुश होते है |
3.वस्त्र - श्राद्ध पक्ष में वस्त्रों का दान करना चाहिए, मान्यताएं हैं कि जो व्यक्ति श्राद्ध करता है तो ऐसे में धोती, साड़ी आदि का दान करें, जिससे वंशजों को वस्त्र की प्राप्ति होती है |
4. गुड़ औऱ नमक - श्राद्ध के समय गुड़ और नमक का दान करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और आपको उनका आर्शीर्वाद से घर में सुख-शांति का आती है और गृह-क्लेश दूर होते है |
5. जूते-चप्पल का दान - पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए जूते चप्पलों का भी दान किया जाता है |
पितृ पक्ष श्राद्ध तर्पण नियम -
गरुड़ पुराण के अनुसार, पितृ पक्ष में जिनकी माता या पिता अथवा दोनों इस धरती से जा चुके हैं उन्हें आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से आश्विन अमावस्या तक जल, तिल, फूल से पितरों का तर्पण करना चाहिए। जिस तिथि को माता-पिता की मृत्यु हुई हो उस दिन उनके नाम से अपनी श्रद्धा और क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए।
जब याद ना हो श्राद्ध की तिथि -
पितृपक्ष में पूर्वजों का स्मरण और उनकी पूजा करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। जिस तिथि पर हमारे परिजनों की मृत्यु होती है उसे श्राद्ध की तिथि कहते हैं। बहुत से लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि याद नहीं रहती ऐसे में शास्त्रों में इसका भी निवारण दिया गया है। शास्त्रों के अनुसार यदि किसी को अपने पितरों के देहावसान की तिथि मालूम नहीं है तो ऐसी स्थिति में आश्विन अमावस्या को तर्पण किया जा सकता है। इसलिये इस अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है। ऐसे ही पिता का श्राद्ध अष्टमी और माता का श्राद्ध नवमी तिथि को करने की मान्यता है।
• ज्योतिषानुसार जिन जातकों की अकाल मृत्यु होती है उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है।
• विवाहित स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी तिथि को किया जाना चाहिए। नवमी तिथि को माता के श्राद्ध के लिए शुभ माना जाता है।
• सन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी तिथि को किया जाने का प्रावधान है।
• नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही करना उचित माना जाता है।
• अविवाहित जातकों का श्राद्ध पंचमी तिथि को मनाया जाता है। इसे कुंवारा श्राद्ध भी कहा जाता है। जिन लोगों की मृत्यु शादी से पहले हो जाती है।
• सर्वपितृ अमावस्या यानि आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन उन सभी ज्ञात-अज्ञात लोगों का श्राद्ध किया जाता है जिनकी मृत्यु हुई है।
यह भी पढ़े -पितृपक्ष की पौराणिक कथा
श्राद्धपक्ष के दौरान न करें ये काम ?
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