माहेश्वरी उत्पत्ति दिवस | महेश नवमी | माहेश्वरी

आइए भारतीय परंपरा के साथ एक और गौरवशाली परंपरा की बात करते हैं इस देश के उपवन में कई जाति के भिन्न-भिन्न फूल खिले हैं और यह अलग-अलग होते हुए भी सभी एक हैं और सभी एक दूसरे के भावनाओं का सम्मान करते हैं|
मानव सभ्यता का जब से विकास हुआ तब से मानव अकेला नहीं रहता । वह परिवार और रिश्ते नातों से बंधकर सुखपूर्वक जीवन यापन करता है|
व्यक्ति को परिवार की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही समाज की भी आवश्यकता है समाज से ही व्यक्ति को पहचान मिलती है इसे हम यूँ समझ सकते हैं व्यक्ति - परिवार - समाज - शहर और देश |
आज मैं माहेश्वरी समाज की बात कर रही हूँ। माहेश्वरी समाज का उत्पत्ति दिवस जिसे महेश नवमी के रूप में जेष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाया जाता है | इसकी शुरुआत ज्येष्ठ शुक्ल 9 युधिष्ठर सवंत 5159 से हुई थी और अभी तक माहेश्वरी समाज के लोग यह महेशोत्सव मनाते आ रहे है | इस दिन भगवान शिव की आराधना करते है, शोभा यात्रा निकाली जाती है और भी कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होते है जहां समाज के लोगो को सम्मानित भी किया जाता है | भारत के राजस्थान राज्य में आने वाले मारवाड़ क्षेत्र से सम्बद्ध होने के कारण इन्हें मारवाड़ी भी कहा जाता हैं |
कहा जाता है कि सप्त ऋषियों की तपस्या भंग करने पर 72 उमरावों को ऋषियों ने श्राप दिया था और वे पाषाण बन गए । पाषाण बने उमरावों की पत्नियों ने भगवन से याचना की तब भगवान शिव और माता पार्वती ने इन उमराव को नव जीवन दिया। लेकिन उनके हाथों से हथियार नहीं छूटे थे। इस पर भगवान शंकर ने कहा कि सूर्यकुंड में स्नान करो, ऐसा करते ही उनके हथियार पानी में गल गए, और "उन क्षत्रियों के शस्त्र, तलवार और ढालों से लेखन डांडी और तराजू बन गए ।" उसी दिन से वह जगह "लोहागर्ल" के रूप में प्रसिद्ध हो गयी और आज भी राजस्थान के सीकर के पास "लोहागढ़" नाम से वह स्थान है। जहां लोग कुंड में स्नान करके भगवान महेश की पूजा एवं प्रार्थना करते हैं।

माहेश्वरी के 5 अक्षर में आप देखिये म, ह, श, व, र सभी में गठान है जैसे शिव की उलझी जटाओ से ही उत्त्पन है | 72 उमरावों से माहेश्वरी समाज की 72 खापें (गोत्र) बनी और इस दिन को महेश नवमी - माहेश्वरी उत्पत्ति दिवस के रूप में मनाया जाते आ रहा है |
धीरे धीरे ये समाज विस्तृत हुआ और हरेक क्षेत्र में उन्नति करने लगा। समाज संगठित हुआ और समाज का प्रतीक चिन्ह भारतीय संस्कृति के अनुरूप बनाया गया जिसमे "सफेद कमल के आसन पर भगवान महेश सांवले लिंग में विराजित शिव पर त्रिशूल एवं डमरु शोभायमान है |"
सभी देवी देवताओं को प्रिय कमल कीचड़ में खिल कर भी पावन है और कमल पर आसित बिल्वपत्र तीन गुणों का संकेत देते हैं "सेवा, त्याग और सदाचार" मानव जीवन को यर्थात करने वाले तीनों गुण और यही भावना रखकर मानव समाज में सेवा देता है तो समाज के शिखर पर पहुंचता है माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति जड़ में समाहित है और शिव और शक्ति का आशीर्वाद है।
1891 में अजमेर स्व. श्री लोइवल जी किशनगढ़ के दीवान की अध्यक्षता में समाज संग़ठन की नींव रखी और गौरव एवं गर्व की बात यह है की माहेश्वरी समाज का ये संगठन पहला जातिय संग़ठन था।
जय महेश के उदघोष के साथ साथ शुरु हुए समाज के कार्य जो समाजजन की भलाई के साथ मानव हित में भी सहयोगी थे| माहेश्वरी बंधू एकत्रित होकर चिंतन करने लगे और छोटी छोटी सभाओं ने महासभा का रूप ले लिया।
आज 21 वी सदी में हमने यूँ ही प्रवेश नही किया। इससे पहले समाज की कई कुरीतियों को जैसे पर्दा प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा आदि, 1929 में पर्दा प्रथा के बहिष्कार की घोषणा की, इस अधिवेशन में महिलाओं की संख्या अधिक थी| 1931 में विधवा विवाह के बारे में के बारे में प्रस्ताव रखा जो 1940 में जाकर पारित हुआ | 1946 में दहेज प्रथा का विरोध और देश में माहेश्वरी समाज ही सबसे पहला समाज है जिसने बाल विवाह को निषेध किया शारदा एक्ट 1930 में 1930 में एक्ट 1930 में दीवान बहादुर हरी विलास जी शारदा अजमेर द्वारा रखा गया।
आज भी माहेश्ववरी समाज निरन्तर क्रियावान है । समाज द्वारा समाज जन के लिए कई ट्रस्ट बनाये जो समय समय पर समाज जन के लिये काम करते है।
माहेश्वरी जाति का संगठन विस्तृत है माहेश्वरी भारत में ही नही वरन नेपाल बांग्लादेश अमेरिका और भी देशों में है और अपनी बुद्धि कौशल और योग्यता के आधार पर चाहे वो शिक्षा, राजनीती या प्रशाशनिक अधिकारी या खेल का मैदान हो कोई सा भी क्षेत्र हो माहेश्वरी किसी से कम नही है । जन सेवा में भी आगे रहते है समाजजन | देश के अनेक शहरो में सेवा सदन स्थापित किये और आगे भी अनेक कार्य किये जा रहे है ।
खानपान हो या पहनावा या हो संस्कारो की बात तो माहेश्वरीयों का अपना अलग ही अंदाज है ।
मेने अपनी कविता "माहेश्वरी है हम" में अपने शब्दो में अपनी बात कही है जरूर पढ़िए इसका लिंक दे रही हूँ ।
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