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माटी की महक

माटी की महक

माटी और माँ सम्भवतः दो शब्द एक दूसरे के पूरक ही तो हैं जहां एक माँ अपने आँचल में अपने नोनिहालों का भरपूर पालन पोषण करती हैं वहीं ज़मीन की माटी सम्पूर्ण धरा को संजोने, सवारने, जीवन को आगे ले जाने की सतत प्रयासों में लीन जो रहती है।

आज मेरी माटी बहुत कुछ कह रही है बच्चों के बचपन के दिन माटी की सौंधी -२ महक के बीच अवश्य एक बार उस मस्त अंदाज के जीवन में रंगने को लालायित ही नही वरन साकार कर देती है,जब हम उन दिनों खेल के मैदान में अल्हड़ अंदाज में जीवन के बचपन के दिन व्यतीत करते हैं, यह वही माटी है जो एक निःस्वार्थ प्रेम को, अनोखी जीवंत सुगन्ध को, एक जीवन अंकुरण के बीच की डोर को बनाये रखने का कार्य करती है, ऐसा नजारा ऐसा करिश्मा इस धरती पर माटी का ही तो है जो कुछ बीजों के नम धरती पर बिखेर देने मात्र से हजारों या कहें असँख्य जीवन को कुछ ही समय में प्राण देने की जादूगरी करती है यह सब ब्रह्माण्डीय अचल शक्ति का एक रूप है जो इस जीवन सूत्र में बराबर बनी रहेगी।

आज माटी का संदेश है कि इस धरती को बारूद के गोले के ऊपर बिठाने वालो से हरगिज बचाना है, जो वर्तमान में आकस्मिक दिखने वाले भूमंडलीय प्राकृतिक परिवर्तन हो रहे हैं जिनसे मानव, जलीय जीवों, स्थलीय जीवों की व बनस्पति जाती की यकायक हानि हो रही है यह कहीं न कहीं मानव के अति अभिलाशा, भोगवृत्ति, अज्ञान का ही नतीजा है, ग्लेशियरों का टूटना, बांधो का बिखराव, व हवा पानी की गुणवत्ता का दूषित होने की बातें मानव जीवन को बहुत ही बड़ा सख्त संदेश दे रही है यदि अभी नही जल्द चेते तो देर सबेर हताशा के सिवा कुछ नही सामने होगा।

संसार की तमाम वस्तुओं के भंडार माटी के अंदर ही तो छिपे थे जो हमने अपने उपयोग के लिए निकाले व भरपूर प्रयोग भी किया पर आज वही मिट्टी की पुकार है कि जरा कृतज्ञता का भाव तो रखो कि जिस माटी के लेप मात्र से मानव या पशु शरीर के विषाक्त रोगों उपचार सिध्द हो जाता है उसी माटी के संरक्षण के लिए क्या हमारे प्रयास नाकाफ़ी नही हैं क्या?  जिन पहाड़ी माटी की धरा पर माटी के गारे से चिनाई किये गए पत्थरो के मकान होते थे जिनके पाल मिट्टी के होते जिनकी लिपाई पवित्र गाय के गोबर से होती जिन घरों में गौमूत्र के छिड़काव के पवित्रीकरण होता था वहीं आज इन पहाड़ों में दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऊँचे टीलो पर भी विलासिता को इंगित करने वाले रिसॉर्ट्स बन गए हैं, गाना, बजाना, पश्चिमी सभ्यता के रिवाजो की झलक भी सामने आ रही है जन्म दिन में हवन, पूजा की जगह फूहड़ गाने बज रहे हैं केक काटे जा रहे है आदि आदि। 

माटी की महक
माटी की खुशबु

माटी जब ये दोनों हमारे हैं तो क्यों न हम इस पवित्र मिट्टी जहाँ स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण पसमहँस, आचार्य बिनोवा भावे, तिलक जैसे महापुरुषों ने सिर्फ इस माटी को चूमकर राष्ट्र के प्रति सदा सदा के लिए प्रेरणास्रोत बन गए ऐसा ही काम इस माटी के लिए क्यों न करें कि हमारा मूल दायित्व हो कि हमारा असल दायित्व अपने जड़ों से जुड़कर इस धरती के सम्पूर्ण विकास के लिए चाहे जो करना पड़े वह चाहे अधिसंख्य पौंधा रोपण हो, या नदियों के संरक्षक की बात हो, वायु के स्वच्छता के लिए छोटे-२ प्रयास हो या नदियोँ के संरक्षण की कवायद हो,धरती के प्रति ईमानदार होने का उदाहरण बनना आदि तमाम तथ्य हैं जो पर्यावरण के विकास के लिए एक नया भारत ही नही बल्कि नया विश्व होगा।

आज हम जहां एक ओर चहुमुखी विकास के विजन को साकार कर रहे हैं दूसरी ओर अथाह पलायन की विभीषिका से भी जूझ रहे है जिस पर लगाम लगाने के प्रयास एक जमीनी सतह से होने की पुकार इस माटी की है पहाड़ों में हो रहे अथाह भू कटान से वहां की प्राकृतिक स्वरूप का खेल बिगड़ रहा है हाल ही में चंद माह पूर्व आई बाढ़ जैसे सूनामी का एक रूप था नैनीताल में 100 वर्षो के इतिहास में पहली बार ताल का पानी अपने सामान्य स्तर से ऊपर सड़को तक आया यह डरावनी सूनामी है, वह भी पहाड़ में हिमखंडों के टूटने की बराबर घटनाओं का क्रम क्रमशः जारी है, आखिर कब मानवीय संवेदना को यह समझने में और वक्त लगेगा कि क्या अब हमारे असल अस्तित्व को बचाने का समय आ गया है जी हां।

आज मेरी देवभूमि की हालत यह है कि सैकड़ों घरों में ताले देख मन दुःखी है और जो मौजूदा परिवार यहाँ निवास कर रहा है वह हताश सहमा सा है, हो भी क्यों न अपनों का अपनों से बिछुड़ने का गम जो है। अब सवाल की यहां की मनोहारी किस्से कहानियों ,संस्कृति के वैभव की मात्र भाषा के सुंदर शब्दो की गुजंन, यहां के असल लोक गाथाओं की, अपनी पुरानी अमर परंपरागत तीज त्योहार की लोक गीतों के मनोहारी बोल की जो थिरकते अंदाज को बयां करने वाला कौन होगा और जो इक्का दुक्का बताने वाले मौजूद है भी तो वह सुनने वाला स्रोता अपने से दूर जो है यह यक्ष प्रश्न है?

यह भी सही है कि मेरे जैसे तमाम देवभूमि के लोगों ने अपने जीवन के शुरुआती वर्ष यहाँ इस सोंधी खुशबूदार मिट्टी के बीच गुजारी होंगी जो उनके मानस पटल पर आजीवन बनी रहेगी क्या हम उस समय को भूल पाएंगे जब ग्रीष्मकालीन रामलीलाओं का आयोजन बड़े उत्साह के साथ होता था हममें से कुछ हनुमानजी व कुछ राम व कुछ लक्ष्मण व कुछ हनुमानजी की सेना में वानर जो बनते थे अपने गाँव की जागर में धुनी में रमते हुए गाँव के सामूहिक रूप से पूरा परिवार अपने ईष्ट देव की आराधना में 11 दिन की ग्यारी व 22 दिन की बैसी में भक्तिमय हो जाता था सर पर विभूति लगाए गाँव के डंगरिया को जब अंगारो से लिपटे चिमटे को देव शक्ति के अवतार से नग्न हाथों से पकड़ते हुए देखते तो रूह काँपती जो थी वहीं दूसरी ओर जागर के दौरान जगरिये की हुडुके की थाप उसकी रीदम से जब एक इंसान में जब भगवान के प्रतिनिधि रूप के दर्शन जो होते थे यह समय मानो मनोकामनाएं पूरन करने , मागने का जो होता था एक असीम आस्थाओं के असल स्वरूप का सोहार्द का होता था। अपने गाँव की बाखली के हर घर की देहली पर नन्हे मुन्ने बच्चों के द्वारा जब वसंत ऋतू के रंग बिरंगी फूलों की टोकरियों पर बिखेरने की होड़ मानो सच्ची आस्था जो थी फूल के बदले में मिलने वाले 5 पैसे से 20 पैसे व 50 पैसे के सिक्के मानों धनवर्षा से कमतर नहीं जो थे। गाँव की होली होल्यारी होली गीत घर की होली बैठक मानों पूरी रंगीन दुनिया का एक झलक जो होती थी भांग के पकौड़े की मस्ती में कुछ युवाओं को झूमते भी देखा था हमने वह खडी होली के सुरम्य गीत आज कानों में गुंजायमान होते है कुछ इस प्रकार-- 
सिद्धि को दाता, विघ्न विनाशन होली खेलो गिरिजापति नंदन।२।
 गौरी को नंदन मूष को वाहन ।२।
 होली खेले गिरिजापति नंदन ।२।
 सिद्धी -----
लाओ भवानी अक्षत चंदन ।२।
 तिलक लगाये गिरिजापति नंदन, होली खेले गिरिजापति नंदन ।२। 

आज यह सब सिर्फ यादें ही रही है पलायनवादी रुख से हमारी आवादी का एक बड़ा वर्ग पहाड़ों से दूर हो गया है। आज जब दिल्ली मुम्बई चेन्नई गुजरात, देश विदेशों में पलायन हुए पहाड के लोगों की साँसे अटकी पड़ी हैं जब कोरोना वाइरस के डर से पहाड़ों की स्वच्छ वादियों की फिर यादें आई है क्योंकि परदेश की हवा जो जहरीली हो गई है, काश समय रहते हम अपनी मात्र भूमि की माटी की खुशबू पर कायम रह जाते तो आज यह कसक न रहती।





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