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भारत जैसे कृषि प्रधान देश में बैलो को देवता तुल्य माना गया है। इसलिए बैलो का सम्मान करने के लिए यह पोला-पिठोरा त्योहार मनाया जाता है। जो हमारी मदद करते है उनके प्रति आभार प्रकट करना हमारी संस्कृति सिखाती है। महाराष्ट्र में पोळा या बैलपोला श्रावण अमावस्या को मनाया जाने वाला बैलो का त्योहार है। कई जगह पर यह त्योहार दो दिन मनाते है। पहले दिन को 'बड़ा पोला' और दूसरे दिन को 'तान्हा पोला' याने बच्चो का पोळा कहते है।
बड़ा पोला
किसानो के लिए यह बहोत महत्वपूर्ण त्योहार है। यह मराठी त्योहार बैलोके प्रति कृतज्ञता याने आभार प्रकट करने हेतु मनाया जाता है। यह त्योहार दरअसल कृषि आधारित पर्व है। इस पर्व का मतलब खेती-किसानी, जैसे निंदाई, रोपाई आदि का कार्य समाप्त हो जाना है। साल भर बैल बलिराजा याने किसानो के साथ खेत में हमारे लिए काम करते है,इसीलिए इस दिन बैलोको आराम रहता है। पोले के एक दिन पहले बैलो को न्योता दिया जाता है। इस दिन किसान बैलो की पूजा करते है। जिनके यहाँ खेती नहीं होती वो लोग मिट्टी के बैल की पूजा करते है। बैलो को नदी या तालाब के किनारे ले जाकर स्नान कराके, उनके कंधोंको हल्दी और तेल या घी से सेका जाता है। फिर बैलो को रंग लगाकर और अलग-अलग जेवर पहनाकर सजाया जाता है। पीठ पे झूल, गले में माला और हार, पैरो में चाँदी के कड़े, घुंघरू आदि से सजाते है। खाने में अच्छे अच्छे पकवान बनाकर खासकर पुरण पोली का बैलो को भोग लगाया जाता है। इस दिन बैल जोड़ियो का ढोल ताशो के साथ जुलूस निकला जाता है। इस पर्व पर खास पोले के गीत गए जाते है। गांव में सब बैल जोड़ियो को साथ लाया जाता है और 'बैल सजाओ प्रतियोगिता' का आयोजन किया जाता है,और गांव के किसी मान्यवर व्यक्ति से पत्तों की माला काटी जाती है उसे 'पोला फूटना' कहते है। बैलो को हनुमानजी के मंदिर लाकर फिर घर ले जाते है। फिर घर की औरते बैल की पूजा करती है। बैल ले जाने वाले व्यक्ति को 'बोजारा' याने पैसे दिए जाते है। पहले गाँवो में इस अवसर पर 'बैल दौड़' का भी आयोजन किया जाता था।
तान्हा पोला
खासकर तान्हा पोला विदर्भ में मनाया जाता है। चार पांच दिन पहिले से बाजारमें मिट्टी के और लकड़ी के बैल बिकनेके लिए आ जाते है। लोग उन्हें खरीदकर अपने अपने घर पर उसकी पूजा करते है। दूसरे दिन बच्चे अपने-अपने बैलो को सजाकर खुद भी अलग-अलग वेशभूषा करके प्रतियोगिता में शामिल होते है। इसकी तैयारी एक हफ्ते पहले से शुरू होती है। बच्चे, मम्मी, पापा घर के सभी लोग तैयारी मे जुट जाते है। लकड़े के बैल यानी जिसे नंदी भी कहते है, उसे सजाने में लग जाते है। यह लकड़े के नंदी छोटे से लेकर असली बैल जितने ऊँचे भी होते है। श्याम को 'पोला फूटने' के बाद इन सजाये हुए नंदियो के साथ अलग -अलग वेशभूषा में बच्चे प्रतियोगिता में भाग लेते है। यह प्रतियोगिता अनेक मंदिरों तथा नगरों में आयोजित की जाती है। फिर सभी बच्चों को प्रसाद और उपहार देकर सम्मानित किया जाता है। बाद मे सभी बच्चे अपने अपने नंदियो को लेकर लोगों के घर जाते है। सभी घर की औरते उनकी आरती उतरती है, फिर बच्चों को मिठाई और 'बोजरा' यानी पैसे देने का रिवाज है। इस त्योहार का उद्देश्य बच्चो को खेती और खेती में काम करने वाले बैलो के प्रति आदर निर्माण करना और उनका महत्व बताना है।
लेखिका - प्राजक्ता जी बड़े
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