शक्ति पीठों की श्रृंखला में अगला नाम आता है, महासमुंद जिले के बागबहरा के निकट स्थित, गांव घुंचापाली में स्थापित, चंडीमाता मंदिर का।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 105 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव बगबहरा, अपने चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य समेटे, कोलाहल से दूर एक शांत जगह है और वहीं पहाड़ियों से घिरे, चहुं ओर जंगल, हरियाली एवं जंगली जानवरों से युक्त, ग्राम घुंचापाली में स्वयंभू मां चंडी विराजमान हैं।
ऊंचाई पर होने के बावजूद, बच्चे बूढों सभी को मां के सुलभ दर्शन प्राप्त होते हैं। क्योंकि ढलान युक्त रास्ता होने के कारण मन्दिर की चढ़ाई सुगम है । यहां पर सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है।
मन्दिर के नज़दीक एक प्राचीन कुंआ है, माता के आशीर्वाद से वह कभी नहीं सूखता । यहां आने वाले दर्शनार्थी, इसके निर्मल जल का सेवन करते हैं।
मुख्य मन्दिर से ऊपर पहाड़ पर, 2 किलोमीटर की दूरी पर, चंडी माता का मन्दिर है । पास ही जुनवानी ग्राम में एक पठारी मैदान है, जिसमें एक शिव मंदिर एवम् एक नागिन के आकर का पतला लंबा पत्थर है, जिसे नागिन पत्थर कहते है, जिससे एक विशेष ध्वनि निकलती है। इसे महाभारत कालीन कहते हैं। यह भी एक विशेष आकर्षण का केंद्र है।
मंदिर के सामने तबलानुमा आकृति के पत्थर भी आकर्षित करते हैं। छत्तीसगढ़ के अद्भुत एवम् विशिष्ठ मंदिरों की श्रेणी में यह मंदिर आता है।
कलियुग के प्रारम्भ में, पाण्डवों ने जब गुप्त वनवास किया था, तब एक रात्रि यहां भी विश्राम किया था। उसी समय यह मूर्ति प्रकट हुई, एवम् पांडवो को चंडी माता ने दर्शन दिए।
पांडवो के जाने के पश्चात, यहां आदिवासी राजाओं का राज था । तब माता ने आदिवासी राजा को स्वप्न में आकर कहा, कि मै यहां विराजमान हूं। वास्तविकता पता करने के लिए राजा अर्धरात्रि को वहां पहुंचे।तब चंडी मां ने राजा को साक्षात् दर्शन दिए। उस काल में शेर भी यहां आया करते थे । तभी से यह मूर्ति यहां विराजमान है ।
राजाओं का राज खत्म होने के पश्चात, यहां आदिवासियों का डेरा था, तब यहां इस मंदिर में सर्प आया करते थे। बाद में भालू आने लगे, जो अभी भी आते हैं। जंगल में जाकर यही भालू खूंखार हो जाते हैं, परंतु यहां पर पालतू पशु की तरह व्यवहार करते हैं।
कई वर्षों तक तंत्र साधना करने वालों ने, स्वयं की साधना के लिए मंदिर को गुप्त रखा, ताकि साधना में कोई व्यवधान ना आने पाए। साल 1950-1951 में, यह मंदिर आम जनता के लिए खोला गया।
9 साढे 9 फूट ऊंची विशाल दक्षिण मुखी इस प्रतिमा का विशेष धार्मिक महत्व है। मूर्ति अवश्य प्राचीन है, परंतु वर्तमान के इस मंदिर का इतिहास 150 वर्ष पुराना है। स्वयं प्रगटित चंडी मां का, शास्त्रीय रूप से एक विशेष महत्व है। पूर्व में गोंड बाहुल्य और उड़ीसा भाषीय क्षेत्र होने के कारण, यहां तंत्र साधना का प्रमुख स्थान था । जो साधकों के लिए, गुप्त स्थल था। एवं "तंत्रोक्त प्रसिद्ध उड्डीस शक्ति पीठ" के नाम से प्रचलित था। 1950 - 51 से यहां वैदिक ऋति द्वारा, पूजा पाठ प्रारंभ हुआ।
अब यहां भक्तों की भीड़ लगी रहती है। खासकर नवरात्रि के समय में। चंडी माता से सच्चे मन से मांगने पर भक्तों की हर इच्छा पूर्ण होती है।
बड़े-बड़े नैनो वाली चंडी माता की मनमोहक प्रतिमा को देखकर हर व्यक्ति सम्मोहित, एवं आनंदित महसूस करता है।
मूर्ति की विशेषता यह भी है कि उसकी लंबाई दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, इसी कारण कई बार मंदिर को तोड़कर,पुन: निर्मित करना पड़ा। आदिवासियों एवं स्थानीय जन की आराधना का यह विशेष केंद्र है। प्रत्येक नवरात्रि में ज्योति कलश भक्तों द्वारा प्रज्वलित किए जाते हैं। एक अखंड दिये की ज्योति, निर्बाध रूप से, सदैव प्रज्वलित होती रहती है। 8 से 10,000 ज्योति कलश, नवरात्रि में प्रज्वलित किए जाते हैं।
स्वच्छ प्राणवायु शुद्ध एवं निर्मल नीर, वातावरण में गूंजती कल कल ध्वनि, पर्वत से टकराती की बूंदे, खेत खलिहान, जंगल, झरनों का मधुर स्वर, स्वच्छंद विचरण करते भालू, देखने के शौकीन सैलानियों के लिए, यह एक खास जगह है।
भालुओ के परिवार को देखकर दर्शक गण अचरज में पड़ जाते हैं, जो प्रसाद खाते हैं, एवं परिक्रमा भी करते हैं, यह सब यही देखने को मिलता है, जो बिना किसी को नुक़सान पहुंचाए, चुपचाप वापस चले जाते हैं।
मंदिर के पीछे गुफा में मां भद्रकाली एवं भगवान शिव विराजमान हैं। खल्लारी माता मंदिर भी यहां से निकट ही है। एक ही बार में दोनों जगह, जाया जा सकता है।
पहुंच मार्ग---
निकटतम हवाई अड्डा----रायपुर से दूरी 85 किलोमीटर
रेल द्वारा--बागबाहरा रेलवे स्टेशन से दूरी 4 किलोमीटर
बस द्वारा-----महासमुंद से दूरी 33 किलोमीटर
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