Bhartiya Parmapara

माँं महामाया मंदिर अंबिकापुर | संभावनाओ का प्रदेश - छत्तीसगढ़

शक्ति पीठों की इस श्रृंखला में, अगला नाम "अंबिकापुर की माँ महामाया" का आता है। जिनका एक नाम अंबिका भी है। जिनके नाम पर यह शहर, अंबिकापुर कहलाया। महामाया मंदिर की स्थापना १५वी शताब्दी के आसपास हुई थी। यह एक जागृत एवम् स्वयंभू मूर्ति है। शक्तिपीठ होने के साथ ही, यह सरगुजा रियासत की कुलदेवी भी है। साथ ही तंत्रपीठ भी है, जो तांत्रिको को साधना के लिए आकर्षित करता है।   

पूर्व में यहां घना जंगल और तालाब था । वहीं पर एक पीपल का वृक्ष भी था । उस समय बाबा कनीराम का नाम अत्यधिक प्रसिद्ध था। उनके एक शिष्य थे चांदूराम, उन्हें यह जगह माता का नाम लेने एवं साधना करने के लिए, अत्यधिक पसंद आई। चांदूराम वहीं बैठकर, तपस्या करने लगे । जहां बैठकर वो तपस्या कर रहे थे, वहीं पर माँ की मूर्ति भूमिगत थी। चांदूराम को तपस्या के दौरान माँ ने कहा - "माँ की भक्ति, चरणों में बैठकर होती है सिर पर बैठकर नहीं।"   

तब चांदूराम ने उस जगह की खुदाई का कार्य प्रारंभ किया। कुछ समय पश्चात, मां दुर्गा की मूर्ति प्राप्त हुई। चांदूराम ने मूर्ति को वहीं स्थापित कर दिया एवम् पूजा अर्चना का कार्य प्रारंभ कर दिया। समय व्यतीत होने के साथ ही, एक शहर बसना प्रारंभ हुआ और मां अम्बिका की छाया में बसा यह शहर, अम्बिकापुर कहलाया। मां की कृपा अम्बिकापुर पर, सदैव ही बरसती रही है। जो एक बार अंबिकापुर आ गया, यहीं का होकर रह गया। मां ने भी उस पर ऐसी कृपा बरसाई, कि वो धन धान्य से परिपूर्ण होकर खुशहाल हो गया।   

मां की कृपा से आजतक, यहां मजहबी तनाव नहीं हुआ। सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग, मां की छत्रछाया में, प्रेम और सद्भाव के साथ रहते हैं तथा मां की सत्ता को स्वीकारते हुए मां का मान करते हैं। हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक, यह शहर रहा है। यहां का प्रत्येक व्यक्ति अपने नए कार्य का प्रारंभ मां के चरणों के का आशीर्वाद लिए बिना नहीं करता है। चाहे वह कोई भी हो। जो भी यहां आता है, मां उसकी हर इच्छा पूर्ण करती है।



   

 

अंबिकापुर की माँ महामाया
महामाया मंदिर के बारे में ,कई प्राचीन कथाएं प्रचलित है।

प्राचीन काल में यहाँ घना जंगल होने के कारण,चोर डाकुओं का आतंक था । एक समय पिंडारी लुटेरे गहनों की लालच में, वहां आकर माता के गहने निकलने लगे। असफल होने पर उन्होंने मां का सिर ही काट लिया और नागपुर ले जाने लगे। बिलासपुर के लिए जाने के लिए रतनपुर बीच में आता है। वहां के राजा को स्वप्न देकर मां ने बताया "मेरे सिर को लुटेरे काट कर ले जा रहे हैं, उसे उनसे छुड़वाओ नहीं तो अहित होगा।"  

राजा ने सरोवर में जितने पिंडारी लुटेरे थे, उनको मारा और सिर छुड़वाया। पूछना भूल गए कि सिर का क्या करूं?  

तब अगले दिन मां ने स्वपन में बताया कि "सिर को मां महामाया के ऊपर स्थापित करो ।"  
राजा ने कहा" दो सिर हो जायेंगे "।  
मां ने कहा "हां दो सिर "।  
रतनपुर में आज भी मां महामाया के दो सिर हैं एवं अंबिकापुर की महामाया छिन्न मस्तिका है ।  

माता के सिर को हर वर्ष दशहरे से पहले को अमावस्या आती है, उस अमावस की रात को, मिट्टी का सिर बनाकर, उस पर मोम का लेप लगाने के पश्चात, धड़ पर लगाया जाता है और पुराने सिर को अगले दिन विसर्जित किया जाता है। अगले दिन दर्शनार्थ खोला जाता है। उस दौरान मंदिर में, किसी को प्रवेश नहीं करने दिया जाता। कुम्हार और बैगा के अलावा, कोई नहीं होता है।  

यहां पूर्व में अन्य मंदिरों की तरह ही पूजा अर्चना होती थी। सारे अनुष्ठान सरगुजा राज परिवार ही करता था। परन्तु १७वी शताब्दी में आदिवासी समाज ने मंदिर पर अपना अधिकार जताया कि वह उनके क्षैत्र में आता है। तत्कालीन राजा अमरसिंह भी मंदिर पर अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते थे। दोनो पक्ष आमने सामने आ खड़े हुए। आखिरकार महाराज के इस प्रस्ताव पर सहमति हुई कि, सुबह कपट खोलकर मां का श्रृंगार बैगा करेंगे। तब वहां कोई पंडित नही रहता। रात्रि में भी कपट बैगा ही बंद करते हैं। श्रृंगार भी वही उतारते हैं। उसके बगल में महाराज ने एक और मूर्ति मां विंध्य वासिनी को स्थापित की उनकी पूजा पंडित करते हैं।  

तंत्र विधि से जो पूजा होती है उसमे, बकरे की बलि होने पर बैगा बकरे का मुंह ले जाते हैं। शारदीय नवरात्रि में अष्टमी नवमी पर विशेष संधि पूजा होती है, उसे सरगुजा महाराज द्वारा कराया जाता है।  

नागर शैली में बने इस महामाया मंदिर का निर्माण १८८९ से १९१७ के बीच महाराज रघुनाथ शरण सिंह देव ने करवाया।  ऊंचे चबूतरे पर स्थापित इस मंदिर के चारों तरफ सीढ़ियां हैं एवम् बीच में एक चौकौर कक्ष में मां विराजमान है। साथ ही मां विंध्यवासिनी की काली मूर्ति भी स्थापित है। चारों और स्तम्भ युक्त मंडप है, और उसके समक्ष यज्ञ शाला है। पूर्व से ही यह तंत्र पीठ रहा है। अम्बिकापुर की पहचान महामाया से ही है। रतनपुर की महामाया के दर्शन, अम्बिकापुर की महामाया के दर्शन करने पर ही पूर्ण होते है । अन्यथा अपूर्ण रहते है।  

नवरात्रि में घी और तेल के मनोकामना दीप जलाए जाते है, जिनकी संख्या हजारों में होती है। मनोकामना पूर्ण होने पर भक्त झंडा चढ़ने आते है।  सच्चे मन से प्रार्थना करने पर मां सबकी इच्छा पूर्ण कर झोली खुशियों से भर देती है। अंबिकापुर के जन साधारण अपने हर कार्य की शुरुआत मां के चरणों में सिर झुकाने के पश्चात ही करते है, चाहे वह कोई भी हो।



   

 

Login to Leave Comment
Login
No Comments Found
;
MX Creativity
©2020, सभी अधिकार भारतीय परम्परा द्वारा आरक्षित हैं। MX Creativity के द्वारा संचालित है |