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कुछ कहानियां सूर्योदय के साथ ही आरम्भ नहीं होती बल्कि सूर्यास्त के समय में भी देखी जा सकती हैं जो कि भविष्य के लिए अनवरत प्रेरणादायी बनी रहती हैंl उन्हीं कहानियों में से एक है राम की शक्ति पूजा जिसे नवरात्रि का आरंभ भी माना जाता है और इस कथा को अपने खूबसूरत शब्द - विन्यास, वाक्य - विन्यास के साथ प्रस्तुत किया है मां बागेश्वरी के सुयोग्य पुत्र- महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला l निराला जी की कृति राम की शक्ति पूजा की आरंभिक पंक्तियां- “ रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर, रह गया राम- रावण का अपराजेय समर l ”
तथा अंतिम पंक्तियां- "होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन, कह महाशक्ति हुई, राम के वदन में लीन l"
इन चार पंक्तियों के मध्य की जो कथा है वह सत्य की असत्य पर विजय, धर्म की अधर्म पर विजय, शुचिता और पवित्रता की कलुषित पर विजय, धर्माचार की दुराचार पर विजय का प्रतीक है l यह केवल निराला कृत राम का आत्मसंघर्ष या स्वयं का आत्मसंघर्ष नहीं है बल्कि यह तो भारतीय जनमानस का वह आत्मसंघर्ष है जो सदैव यह स्मरण दिलाता है कि अगर साध्य उत्तम हो तो साधन भी उत्तम प्राप्त होते हैं और साधना भी शक्ति से पूरित होकर विजय शक्ति के रूप में प्राप्त होती है l
कहानी सारांश रूप में यह है कि एक तरफ तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम हैं, दूसरी तरफ महा पराक्रमी विजेता रावण है, दोनों ही आचरण और धर्म में एक दूसरे के विपरीत है और कुछ पूरक भी है l लंका में जब दोनों का अनिर्णीत युद्ध चल रहा था तब एक समय ऐसा आया कि रावण और उसकी सेना ने राम की सेना को बुरी तरह से पदतल कर दिया उसके अट्टहास से धरती मानो टलमल हो रही हो और दूसरी तरफ राम के शिविर में एक दम सन्नाटा था, सभी के चेहरे पर चिंता की रेखाएं स्पष्ट दिखाई दे रहीं थीं सब आश्चर्य चकित होकर मौन बैठे थे कि आखिर जो त्रैलोक्य के स्वामी हैं वो भी लंकापति को परास्त करने में असमर्थ से नजर आ रहे थे स्वयं राम भी इस बात को लेकर परेशान और व्याकुल थे कि आज यह सब हो क्या रहा है, राम के चरणों में हनुमान बैठे हैं तभी अचानक राम की आंखों से दो आँसू गिरते हैं हनुमान को लगा ये तो माता के चरण हैं जो कौस्तुभ मणियों जैसे शोभित हैं मगर ज्यों ही वे उन्हें देखने के लिए अपना सर उठाते हैं तो क्रोध में आ जाते हैं क्योंकि उनके रहते हुए राम की आँखों में आँसू यह तो संभव ही नहीं, वे क्रोध में भरकर महाकाश को निगलने के लिए विराट रूप धारण करते हैं जैसे ही उनकी गति महाकाश की तरफ जाती है तब स्वयं शक्ति भी उनसे युद्ध करने के लिए उद्घत हो उठती है तब अचानक शिव की समाधि टूटती हैं वे शक्ति से आग्रह करते हैं हे देवी! जिसे तुम साधारण वानर समझ रही हो वह मेरा ही रुद्रावतार है और स्वयं रघुनंदन द्वारा संरक्षित हैं और अभी तक इसने श्रृंगार युग्म धारण नहीं किया है अर्थात बाल ब्रह्मचारी है अतएव अगर तुम इससे लडोगी तो निश्चय ही तुम्हारी पराजय होगी l
अगर तुम इसे परास्त करना चाहती हो तो इसे प्रबोध दो इससे यह रुक जाएगा तभी अचानक आकाश में मां अंजना का उदय होता है वे हनुमान से कहती हैं कि जब तुम छोटे थे तब तुमने सूर्योदय के समय सूरज को निगल लिया था लेकिन वह तो बालपन था और आज भी तुम उसी बालपन की हरकत कर रहे हो तुम्हें शर्म नहीं आती तुम्हारी वजह से माता को बहुत कुछ सहना पड़ता है बताओ क्या तुम यह सब अपने स्वामी की आज्ञा से कर रहे हो जानते नहीं यह शिव का वास है जिसकी आराधना स्वयं तुम्हारे प्रभु श्री राम करते हैं तुम इस प्रकार यह हरकत कर अनायास ही अधर्म कर रहे हो तुम्हें बिल्कुल लज्जा नहीं आती तब हनुमान पुनः अपने रूप में आकर स्वामी के पास शिविर में बैठ गए l
जबकि सत्य यह है घट घट व्यापी राम जो आस्ति नास्ति, लय प्रलय, भूत-भविष्य और वर्तमान के कर्त्ता भी हैं और स्रष्टा भी l मगर राम तो राम हैं सर्व शक्तिमान होते हुए भी कभी अपनी शक्ति का अनावश्यक प्रदर्शन नहीं किया बल्कि हमेशा यह संदेश दिया कि पुरुषार्थ और परिश्रम से अर्जित की हुई साधना शक्ति सदैव भाग्य लिपि से सशक्त होती हैl राम जानते हैं कि उनके पास जामवंत, नल- नील, गवाक्ष, वानरराज सुग्रीव, बाली पुत्र अंगद और स्वयं रुद्रावतार महावीर हनुमान जैसे अतुलित पराक्रमी वीर हैं l लेकिन आज स्थिति बहुत विपरीत हैl विभीषण और जामवंत का भी प्रभु से यही प्रश्न है कि भगवान जिस चेहरे को देखकर सभी को असीम शांति मिलती थी आज उसी चेहरे पर चिंता की रेखाएं क्यों है? हताशा और व्याकुलता से भरा हुआ यह व्यथित मन आज हमें भी भयातुर कर रहा है? आपका वह तेज दिखलाई क्यूँ नहीं पड़ रहा जिसे देखकर समूचे राक्षस कुल की शक्ति मंद पड़ जाती थी और उनका उद्धार भी हो जाता था l लेकिन सभी के प्रश्नों का राम के पास एक ही उत्तर था कि रावण के पक्ष में माता आदिशक्ति स्वयं युद्ध कर रही हैं और रावण को सरंक्षण दे रही हैं l तब जामवंत जी ने प्रतिउत्तर में कहा प्रभु आप भी फिर माता की आराधना कीजिए और युद्ध का नेतृत्व जब तक लक्ष्मण संभालेंगे तथा अलग अलग जगहों पर, अलग अलग मोर्चों पर सुग्रीव, विभीषण, अंगद और हनुमान सहित मैं स्वयं भी उपस्थित रहूंगा l
हमें पूर्ण विश्वास है फिर आदिशक्ति माता आपके पक्ष में विजय श्री का आशीष प्रदान करेंगी क्योंकि आप तपस्वी भी हैं और मनस्वी भी, सदाचार और संयम के साथ आप प्रण पालक हैं, हे रघुकुल शिरोमणि आप साधना करिए l अब वह सेवक ही कैसा जो स्वामी की मनोस्थिति न समझ सके अर्थात भगवान ने माता की आराधना के लिए हनुमान से 108 इंदीवर लाने के लिए कहा अगर इससे भी अधिक हों तो अत्युत्तम l बस फिर क्या था हनुमान ने आदेश पाते ही 108 इंदीवर प्रभु के समक्ष शीघ्रतापूर्वक उपस्थित कर दिए और राम तपस्या में लीन हो गए l
सर्वविदित है मनुष्य जब सांसारिक विपदाओं की परीक्षा को अपने उद्देश्य और दृण विश्वास से परास्त कर देता है तब उसके संकल्प की परीक्षा लेने के लिए स्वयं प्रकृति (शक्ति) उपस्थित होती है ठीक उसी प्रकार राम जब तपस्या में लीन थे तब उनकी साधना चरम पर थीl योग कुंडलियां जाग्रति का आभास दे रही थीं l लेकिन अब राम के सामने प्रकृति स्वयं खड़ी थी तात्पर्य यह है कि 107 इंदीवर समर्पित करने के बाद जब अंतिम पुष्प समर्पित करने के लिए ज्यों ही अपना हाथ बढ़ाया त्यों ही उनका अचानक ध्यान भंग हुआ क्योंकि वह पुष्प माता शक्ति ने स्वयं चुरा लिया था क्योंकि वे राम के संकल्प की परीक्षा लेना चाह रही थीं मगर दूसरी तरफ जहां राम साधना के बल पर शक्ति अर्जित कर रहे थे कुछेक देर के लिए पुनः निराशा में चले गए और स्वयं को धिक्कारने लगे कि अब शायद ही जानकी का उद्धार हो मगर तुरंत ही उन्हें याद आया कि मेरी माँ मुझे बचपन में नीलकमल बुलाती थीं और आज भी मुझे एक ही इंदीवर( कमल) की जरूरत है उन्होंने तुरंत ही अपना नेत्र इंदीवर के रूप में माता को समर्पित करने के लिए संकल्प कर लिया l ज्यों ही राम ने अपने हाथ में तीर लेकर एक आंख को निकालने के लिए उद्धत हुए त्यों ही माता भगवती मुस्कुराती हुई प्रकट हो गईं और उनका हाथ थाम लिया तथा विजय श्री का आशीर्वाद प्रदान किया जिसकी उद्घोषणा प्रारम्भ में ही काव्य की अंतिम पंक्तियों में की जा चुकी है l
यही कहानी की पृष्ठभूमि ही चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ और रामनवमी मनाने की आधारशिला भी है l राम ने सिखलाया है साधना सदैव समर्पण मांगती हैं हर स्थिति परिस्थिति मनोस्थिति में राम आज भी जनमानस में प्रासंगिक हैं शायद इसीलिए मैथिलीशरण गुप्त जी ने भी साकेत में कहा है- "राम तुम्हारा चरित ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है l"
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