Bhartiya Parmapara

क्षितिज तक

डॉक्टर तमन्ना अस्पताल से निकलते हुए सोच में इतनी डूबी हुई थी कि उसने किसी के अभिवादन का जवाब दिए बिना ही कार तक पहुंच गई। उनके मन में अपनी बीमार बच्ची निम्मी का रुआँसा चेहरा घूम रहा था। जब वह रोज की तरह अस्पताल जाने के लिए तैयार हो रही थी, तभी निम्मी उसके पास आई और "पेट दर्द" की बात कही तो उन्होंने उसे एक टेबलेट देते हुए कहा-"इसे कुछ खाकर ही लेना।" निम्मी ने कहा- आप एक दिन की छुट्टी नहीं ले सकती क्या? डॉ. तमन्ना ने समझाते हुए कहा - "बेटा। छुट्टी तो ले सकती हूं किन्तु आज नहीं ले सकती हूं। ऑपरेशन डे में नहीं ले सकती।" निम्मी आवेश में आकर बोली- "पूरे अस्पताल में आप एक ही डॉक्टर है क्या?" डॉ. तमन्ना उसकी तकलीफ समझ रही थी, किन्तु वह उसकी मजबूरी नहीं समझ रही थी। फिर भी उन्होंने उसे बहुत ही विनम्रतापूर्वक कहा-"निम्मी। अब तुम बड़ी  हो गई हो। समझदार भी हो। मेरी ड्यूटी भी पता हैं तुम्हें। फिर जिद क्यों कर रही हो बेटा।“ फिर अपनी काम वाली बाई को आवाज लगाई - "लक्ष्मी!! इधर आना" लक्ष्मी हाथ पोंछती हुई आकर पूछा - "जी मेमसाहब" डाक्टर तमन्ना ने कहा - "देखों। निम्मी की पसंद का नाश्ता बनाओ। उसे अपने हाथों से खिलाना, और उसे अच्छी सी कहानी भी सुनाना।" तभी तमन्ना का मोबाइल बजने लगा जिसे उसने अटेंड करते हुए कहा - "बस मैं निकल ही रही हूं।" वह तुरंत निकल गई। किन्तु मन में शांति नहीं थी। वे पति-पत्नी दोनों ही डॉक्टर हैं। उनकी इकलौती बेटी निम्मी अपने मां-बाप के साथ के लिए तरसती रहती हैं। वह शुरु से ही नौकरानी के हाथों में रही, मां का दूध भी उसने पिया हो उसे याद नहीं।


पिता ने उसे गोद खिलाया हो, वह भी उसे याद नहीं। उसके मां-बाप कभी पैरंट्स मीटिंग में भी कभी एक साथ नहीं जाते। कभी मां तो कभी पापा आते हैं। निम्मी अपने स्कूल की बातें, सखी- सहेलियों की बातें  मां को सुनाना चाहती हैं किन्तु उनके पास समय ही नहीं होता। तब ये सारी बातें लक्ष्मी को ही सुना कर अपना जी हल्का कर लेती हैं लेकिन अपनापन अपने मां-बाप को खोजता हैं, जो उसे नहीं मिल पा रहा है।



  

 

समय का चलता चक्र निम्मी को हालात से समझौता करना सीखा गया। अब वह कालेज में पढ़ने लगी थी। अब उसकी मित्र मंडली बन गई जिसमें लड़के लड़कियां सब शामिल थे। उम्र का तकाजा था तो विपरीत लिंगी आकर्षण होना ही था। निम्मी का भी खास दोस्त शगुन बन गया। उसके हाथ में पैसों की कमी नहीं थी सो अक्सर मित्र मंडली के साथ कभी फिल्म देखने चली जाती तो कभी रेस्टोरेंट में बैठी रहती। अब वह शगुन के साथ अकेले ही घूमने-फिरने लगी। उसे मन लायक साथी मिल गया था किन्तु समय से पहले किसी का साथ खुशी नहीं दे सकता था लेकिन ख्वाबों ख्यालों में प्रेम तत्व की सीमा लांघना कितना घातक हो सकता हैं। ये वह नहीं जान पाई। शगुन के साथ अकेले पलों की सौगात जब सामने आई तो पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई। मां-बाप से छुपाकर कब तक रखती? शगुन ने अबॉर्शन कराने की सलाह दी किन्तु निम्मी इतना डर गई कि अपनी खास सहेली तक को बताने की हिम्मत नहीं कर पाई। अब क्या होगा? सोचते सोचते उसने नींद की ढेरों गोलियां निगल गई। अगले दिन माँ-बाप को वह बेहोशी की हालत मे मिली तो उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया, जहां जांच रिपोर्ट पर दोनों ही हैरान रह गए। "अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।"


पति ने सारा दोष पत्नी पर मंड दिया और मां रो रो कर बेहाल हुई जा रही थी। उन्हें बच्ची पर ध्यान देना चाहिए था। उसे सुख समृद्धि के साथ मां-बाप के साथ की, आत्मीयता की जरूरत थी। सुसंस्कार करना तो मां- बाप का ही फर्ज होता है ना। उनके साथ रहना, उनकी इच्छाओं और समस्याओं को सुनना भी उतना ही जरूरी होता है, अन्यथा बच्चे बहक सकते हैं।



  

 

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