
पौराणिक कथानुसार ब्रह्माजी के मानस पुत्र सप्त ऋषियों में से एक महर्षि अत्रि व प्रजापति कर्दम ऋषि की पुत्री और सांख्य शास्त्र के प्रवर्तक कपिल देव की भगिनी सती अनुसूया के यहां त्रिदेवों के अंश से तीन पुत्र सबसे पहले ऋषि दुर्वासा, फिर चन्द्रदेव उसके बाद दत्तात्रेय ने जन्म लिया।
चूंकि भगवान दत्तात्रेय को शैवपंथी प्रभु शिव का अवतार तो वैष्णव पंथी प्रभु विष्णु का अंशावतार मानते हैं और सती अनुसूया की पति-भक्ति के कारण उनकी सतियों की गणना में सबसे पहले होती है इसलिये कुछ लोगों का यह स्वाभाविक प्रश्न हो जाता है कि फिर ये उनके पुत्र कैसे हुये। इसलिए इस जिज्ञासा के समाधान हेतु उस घटना से आप सभी को अवगत करा रहा हूं जिसके चलते उनका जन्म सती अनुसूया के गर्भ से हुआ।
वह घटना इस प्रकार है -
एक बार ब्रह्माणी, विष्णूवक्षा व गौरी में यह जानने की प्रबल इच्छा जागी कि सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता कौन है? जब यह निर्णय हो गया कि महर्षि अत्रि पत्नी अनुसूया इस समय न केवल सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता है बल्कि सतियों की गणना में भी वे पहले स्थान पर हैं तब इन तीनों ने अपने अपने स्वामियों से भूलोक जा कर पतिव्रता अनुसूया की परीक्षा लेने का आग्रह किया। इस आग्रह के परिणामस्वरूप तीनों देव अर्थात ब्रह्मा, विष्णु व महेश ब्राह्मण वेश धारण कर महर्षि अत्रि के आश्रम उस समय पहुंचे जब महर्षि आश्रम के बाहर कहीं गए हुए थे।
सती अनुसूया ने उनका यथोचित सत्कार किया और पधारने वास्ते आभार भी प्रकट किया। तत्पश्चात तीनों ने भिक्षा की मांग तो की, सो तो ठीक, लेकिन एक शर्त भी लगा दी जिसके अनुसार सती को एकदम नग्न हो कर भिक्षा देनी थी अन्यथा वे भिक्षा नहीं लेंगे। इनकी शर्त जान सती धर्मसंकट में उलझ गईं लेकिन फिर थोड़ा संभलकर उन्होंने मंत्र का जाप कर अभिमंत्रित जल को उन तीनों ब्राह्मण वेश धारण किये त्रिदेवों पर डाल दिया। अभिमंत्रित जल के छीटों से तीनों तुरंत प्रभाव में छोटे छोटे बालक अर्थात शिशु रूप में बदल, सती अनुसूया के गोद में खेलने लगे। इस तरह तीनों को शिशु रूप में पा सती ने तीनों को स्तनपान करा भिक्षा वाली बात पूरी की।
इसी बीच एक तरफ तो महर्षि आश्रम लौट, जब यह सब नजारा देखा तब अपनी आंखें बंद कर तपबल से सारी परिस्थिति से अवगत हो गये और दुसरी तरफ जब ये तीनों देव वापस स्वर्ग नहीं लौटे तो माता सरस्वती जी के साथ साथ माता लक्ष्मी जी व माता पार्वती जी चिंतित हो, तीनों सती अनुसूया के पास पहूंची। उन तीनों ने वहां जब सारी हकीकत देखी तब बिना किसी भी प्रकार के संकोच किये सती से अपने अपने स्वामियों को वापस कर देने का आदरपूर्वक आग्रह किया।
सती अनुसूया व महर्षि अत्रि ने उनका आग्रह स्वीकारते हुए विनम्रतापूर्वक यह आग्रह कर निवेदन कर दिया कि जब इन त्रिदेवों को सती ने स्तनपान कराया है तब इन्हें किसी न किसी रूप में हमारे साथ रहना पड़ेगा। तत्पश्चात उन त्रिदेवों ने उनके आग्रह को स्वीकारते हुए सती के गर्भ में दुर्वासा, चन्द्र देव व दत्तात्रेय के रूप में अपने अवतारों को स्थापित कर दिया। लेकिन जब सती अनुसूया ने दुर्वासा को जन्म देने के पश्चात चन्द्र देव को भी जन्म दे दिया लेकिन जब तीसरे शिशु का जन्म न हो पाया और सती को प्रसव पीड़ा होती रही तब ब्रह्मदेव व शिवजी को सारी बात समझ में आ गयी तब उन लोगों ने फिर अपने अपने कुछ अंश भेजें जिसके चलते भगवान दत्तात्रेय गर्भ में ही तीन सिर और छ: भुजा हो गयी। भगवान दत्तात्रेय मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को जन्मे। यही कारण है जिसके चलते भगवान दत्तात्रेय ब्रह्मा-विष्णु-महेश के अवतार माने जाते हैं।
भगवान दत्तात्रेय जी का यह दृढ़ विश्वास था कि जिससे भी ज्ञान, विवेक व किसी भी प्रकार की कोई भी शिक्षा मिले वह ग्रहण करें भले ही वह पशु-पक्षी हो या प्रकृति का कोई भी अंश। यही कारण था जिसके चलते उन्होंने १) पृथ्वी २) जल ३) वायु ४) अग्नि ५) आकाश ६) सूर्य ७) चन्द्रमा ८) समुद्र ९) अजगर १०) कपोत ११) पतंगा १२) मछली १३) हिरण १४) हाथी १५) मधुमक्खी १६) शहद निकालने वाला १७) कुरर पक्षी १८) कुमारी कन्या १९) सर्प २०) बालक २१) पिंगला वैश्या २२) बाण बनाने वाला २३) मकड़ी २४) भृंगी कीट वगैरह का अध्ययन कर जो कुछ इनसे सीखा उसको अपने जीवन में ही नहीं उतारा बल्कि इन चौबीसों को गुरु बना लिया।
आप सभी के ध्यानार्थ भगवान दत्तात्रेय जी की कृपा से गुरु गोरखनाथ जी को आसन, प्राणायाम, योग वगैरह का ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी तरह भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश दिया। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने परशुरामजी को श्री-विद्या मंत्र प्रदान किया था और शिवपुत्र कार्तिकेय को भी अनेक विद्याओं प्रदान की थीं।
भगवान दत्तात्रेय जी आजन्म ब्रह्मचारी, अवधूत और दिगम्बर रहे थे। इनकी आराधना से बहुत ही जल्दी सफलता प्राप्त हो जाती है। भगवान दत्तात्रेय को सही तरीके से सभ्य जीवन जीने व व्यक्तियों का मार्गदर्शन करने के लिए जाना जाता है।
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