
सभी प्रबुद्ध पाठकों के ध्याननार्थ बताना चाहता हूँ कि महाकवि कालिदास जी के जन्म व परिवार से सम्बन्धित किसी भी प्रकार की प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। परन्तु उनको मानने वाले अधिकांश में से कुछ कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तो कुछ द्वादशी तिथि को इनकी जयन्ती मनाते हैं। इसी अनुरूप इस बार मध्य प्रदेश सरकार में संस्कृति मंत्री सुश्री उषा ठाकुर के अनुसार देव प्रबोधिनि एकादशी से सात दिवसीय [4 नवंबर से 10 नवंबर] अखिल भारतीय कालिदास समारोह, कालिदास संस्कृत अकादमी और विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा कालिदास संस्कृत अकादमी के उज्जैन स्थित परिसर में आयोजित किया जायेगा और इसके शुभारंभ समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को आमंत्रित किया जाएगा। अब सबसे पहले संक्षेप में आप सभी को एक रोचक तथ्य, "रामबोला से कालिदास कैसे बने प्रस्तुत कर रहा हूँ।" यहाँ यह ध्यान रखें कि कालिदास जी के सम्बन्ध अनेक किवंदतियां हैं और बहुत कम जानकारियां हैं। इसलिये कथाओं और किंवदंतियों के सहारे जो कुछ जानने मिलता है उस अनुसार उस समय के 'राजा शारदानन्द' की विदुषी राजकुमारी विद्योत्तमा ने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि जो उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा, वे उसी के साथ शादी करे लेंगी। इसी क्रम में उसने अनेक पण्डितों को पराजित किया यहाँ तक कि काशी के अनेक प्रकांड विद्वानों तक को राजकुमारी विद्योत्तमा ने शास्त्रार्थ में हरा दिया था।
विदुषी राजकुमारी विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ में पराजित व अपमानित पण्डितों ने उससे बदला लेने के उदेश्य से एक ऐसे पात्र को खोज ही रहे थे कि उन्हें जंगल में एक जगह कालिदास जी पेड़ की डाल पर बैठे दिखायी दिये। आश्चर्य इस बात का था कि वे जिस टहनी पर बैठे थे उसी को बिना परिणाम जाने काट रहे थे, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि ये अनपढ़ और निपट मूर्ख थे बल्कि यों कहिये बुद्धि की दृष्टि से शून्य अर्थात उन्हें चीजों की समझ ही नहीं थी। इनके इस कृत्य ने उन सभी को आकर्षित किया। फलतः उन पराजित व अपमानित पण्डितों को अपने षड्यन्त्र रचने के लिए ये श्रेष्ठ पात्र लगे। इसलिये उन सभी पराजितों ने मिलकर छल से कालिदास जी से विदुषी विद्योत्मा का मौन शब्दावली में शास्त्रार्थ करवा कर उनका विवाह राजकुमारी विद्योत्मा से करवा दिया। लेकिन इसके बाद जब वास्तविकता सामने आयी तब विदुषी राजकुमारी विद्योत्तमा ने इनको केवल धिक्कारा ही नहीं बल्कि यह कह कर घर से निकाल दिया कि सच्चे विद्वान् बने बिना घर वापिस नहीं आना। बताते हैं इसके बाद कालिदास जी तन मन से समर्पित हो अर्थात पूरी लगन तथा परिश्रम से, सच्चे मन से माँ काली देवी की आराधना की और उनके आशीर्वाद फलस्वरूप वे ज्ञानी भी बने और धनवान भी साथ ही साथ उस दिन के बाद से ही वे कालिदास के नाम से सर्वत्र जाने लगे। इस प्रकार उनके ज्ञान चक्षु खुल जाने से उन्होनें न केवल अनेक स्थानों का भ्रमण किया बल्कि वेद-शास्त्रों का गहन अध्ययन करके विद्वत्ता प्राप्त की। विद्वत्ता प्राप्ति पश्चात, जब घर लौटे तो पत्नी ने संस्कृत में प्रश्न पूछा और उत्तर में उस प्रश्न में उपयोग किए गये शब्दों से प्रारंभ कर तीन - महाकाव्य 'कुमार सम्भव', खण्डकाव्य 'मेघदूत' व महाकाव्य 'रघुवंश' सृजित कर विदुषी पत्नी विद्योत्तमा को चमत्कृत कर दिया। चूँकि उन्हें अपनी पत्नी के धित्कारने के बाद परम ज्ञान की प्राप्ति हुई इसलिये, ऐसा माना जाता है कि कालिदास जी ने विदुषी विद्योत्तमा को पत्नी न मान अपना पथप्रदर्शक गुरु माना।
उपलब्ध जानकारी अनुसार इसके बाद इन्हें राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वितीय) के शासनकाल में दरबार के नवरत्नों में शामिल किया गया था। कहीं कहीं ऐसा पढ़ने में आता है कि इन्होनें छोटी-बड़ी कुल लगभग चालीस रचनायें सृजित कीं हैं लेकिन निर्विवाद रूप से सात रचनायें तो कालिदासकृत ही मानी जाती हैं। जिसमे तीन संस्कृत नाटक विक्रमार्वण्यम, मालविकाग्निमित्रम और अभिज्ञानशाकुंतलम के अलावा दो महाकाव्य कविताएँ रघुवंश और कुमारसंभव और दो ही खंडकाव्य ऋतुसंहारा एवं मेघदूत है।
अन्त में आपके ध्यानार्थ बताना चाहता हूँ कि कविकुल गुरु कालिदास जी ने आदर्शवादी परंपरा के साथ साथ नैतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए सरल, मधुर व अलंकार युक्त भाषा का प्रयोग करते हुये रचनायें सृजित कीं। इसके अलावा इनकी रचनाओं में न केवल श्रृंगार रस का विवरण बल्कि ऋतुओं का विस्तृत वर्णन पढ़ने मिलता है। यही सब कारण रहे हैं जिसके चलते इनके बाद हुए प्रसिद्ध कवि वाणभट्ट ने इन्हें प्रतिभावान, महाकवि और उच्च कोटि के नाटककार बता इनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की। इसके अलावा एक और असाधारण तथ्य ध्यान में आया है जिसके अनुसार अपने समय के दक्षिण वाले शक्तिशाली चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय ने भी अपने एक शिलालेख में कालिदास जी को महान कवि के रूप में दर्शाया हुआ है। आज तक भी सभी प्रकाण्ड विद्वान कालिदास जी को सर्वश्रेष्ठ अद्वितीय कवि मान काफी आदर देते हैं।
आप सभी को यह जान कर खुशी होगी कि इनका अभिज्ञानशाकुंतलम पहला भारतीय नाटक था जिसे पश्चिमी भाषा में सर विलियम जोन्स ने अनुवादित किया था। इसी प्रकार पढ़ने में आता है कि क्षिप्रा नदी के तट पर बैठकर लिखा गया खंडकाव्य मेघदूत को होरेस हेमैन विल्सन ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था।
इन्हीं सब कारणों से इनकी गणना भारत के ही नहीं बल्कि संसार के अति सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में है क्योंकि नाट्य, महाकाव्य, खँड़काव्य/गीतिकाव्य के क्षेत्र में इनकी अदभुत रचनाशक्ति अपने आप में बेजोड़ मानी जाती है।
इस तरह ऊपर वर्णित महाविदुषि विद्योत्मा और कविकुल चूडामणि कालिदासजी का जीवन दर्शन यह प्रेरणा देता है कि शिक्षा से न केवल विद्वता की प्राप्ति होती है बल्कि दरिद्रता दूर होकर जिन्दगी में खुशहाली आती है, साथ ही यश में भी वृद्धि होती है।
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