
वैदिक काल में जिसे हम रक्षासूत्र कहते थे उसे ही आजकल राखी कहा जाता है। मुझे याद है बचपन में हमारी बुआजी ऋषि पञ्चमी वाले दिन पहले पहले रेशम की पाँच या सात पतली रंगीन डोरियों से बनी रक्षासूत्र थोड़ा फैलाकर हम सभी के हाथ में बाँधती थी। बाद में हमारे आग्रह पर हमारी माताजी ने रेशमी फूँदों वाली राखी हमारी बहन से बँधवाना शुरू किया तब बुआजी ने भी उसी अनुसार हम भतीजों के लिये रेशमी फूँदों वाली राखी बाँधना प्रारम्भ कर दिया हालाँकि पिताजी को तो वही रेशम की पाँच या सात पतली रंगीन डोरियों वाला वैदिक रक्षा सूत्र बाँधती थी। अब जैसा आप सभी जानते भी होंगे और मानते भी होंगे कि रक्षासूत्र केवल पाँच या सात पतली रंगीन डोरियाँ नहीं बल्कि यह बाँधने और बँधवाने वालों के बीच शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा होता है। उस समय इस पर्व के शुरुआत के समय उपलब्धता के आधार पर एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े के टुकड़े में दूर्वा, अक्षत (साबूत चावल), केसर या हल्दी, शुद्ध चंदन एवं कुछ सरसों के साबूत दाने - इन पाँच सामानों [जो हमारे घरों में आसानी से मिल जाते हैं] को मिलाकर छोटे से कपड़े के टुकड़े में बाँध रक्षासूत्र वाले कलावे से जोड़ हाथ पर बाँध देते थे। कालान्तर में यही स्वरूप पहले तो रेशमी फूँदों वाली राखी में बदला और धीरे धीरे आज जिस रूप में हम सभी देख रहे है अर्थात केवल कच्चे सूत जैसे कलावे, रेशमी धागे से आगे सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की राखियाँ उपलब्ध हैं और आजकल इस राखी वाले व्यवसाय में कई सौ लाखों का वारा-न्यारा हो रहा है।
अब आपके ध्याननार्थ बताना चाहूँगा यह पर्व दो अलग अलग तिथियों को मनाया जाता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी जिसे हम ऋषि पञ्चमी कहते हैं, वाले दिन माहेश्वरी जाति के अलावा गौड़, पारीक, दाधीच, सारस्वत, गुर्जर गौड़, शिखवाल के अलावा खन्डेलवाल माहेश्वरी एवं पुष्करणा हर्ष जाति में बहन भाई को रक्षासूत्र/राखी बांधती है जबकि बाकी सभी जगह, क्योंकि यह पर्व न केवल पूरे भारत में बल्कि नेपाल में भी, श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन जिसे हम श्रावणी-पूर्णिमा कहते हैं, वाले दिन रक्षाबंधन वाले त्योहार के रूप में मनाया जाता है।
आप सभी की जानकारी के लिये बता दूँ कि माहेश्वरी समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी से अर्थात परम्परागत रुप से ऋषि पञ्चमी के दिन ही बहनें अपने भाईयों को रक्षासूत्र बांध यह त्योहार मनाते आ रहे हैं। हालाँकि आजकल यह भी देखने में आ रहा है कि एक ही परिवार में दोनों ही दिन यह पर्व मनाया जाने लगा है जिसका मुख्य कारण अन्तर्जातीय विवाह सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध में यही बताना चाहूँगा कि परम्परागत रूप से भारत एवं नेपाल के हिन्दुओं में अन्तरजातीय विवाह बहुत कम होते रहे हैं किन्तु अब शहरीकरण के चलते ज्यादा से ज्यादा युवा महिला और पुरुष जाति के बंधनों से परे अपनी व्यक्तिगत पसंद से शादी करना चाहते हैं और हमारे समाज से भी इसे अपेक्षाकृत अधिक स्वीकृति मिलने लगी है।
उपरोक्त बताये अनुसार दोनों समय मनाया जाने वाला यह त्योहार भाई और बहन का त्योहार है] भाई बहन के प्यार का प्रतीक है। इन दोनों दिनों में बहनों में एक अलग तरह का उमंग देखने में आता है जिसका एकमात्र कारण सुख-दुख में साथ निभाने की प्रतिबद्धता। लेकिन आजकल सगी बहनों को उपहार चाहे नगद हो या अन्य किसी रूप में देकर, इतिश्री कर लेते हैं। जबकि आगे दोनों के बीच, भले ही मुँहबोली बहन हो या मुँहबोला भाई, एक निश्छल प्रेम देखने मिलता था। इसका एक छोटा सा उदाहरण आपको अवश्य ही आनंदित कर देगा जो इस प्रकार है - जैसा सभी प्रबुद्ध पाठक जानते होंगे हिन्दी साहित्य युग के महानायक और उसकी आत्मा क्रमशः पं सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और उनकी मुंहबोली बहन महादेवी वर्मा के बीच रक्षाबंधन वाले, एक दिन जो घटना पढ़ने में आती है उसके अनुसार 'निरालाजी' रिक्शे में बैठ मुंहबोली बहन महादेवीजी के यहाँ राखी बँधवाने के लिये पहूँच, उससे ही बारह रुपये मांगते हैं और तो और महादेवीजी के यह पूछने पर कि 12 रुपये काहे चाहिए तो मुँहबोला भाई उत्तर देता है दुई रुपया इस रिक्शे वाले को और 10 तुमको राखी बधाई का दूंगा। ऐसी निश्छल प्रेम वाली घटना पढ़ हम सभी की भी आँखें छलछला उठती है।
अब आपको जैसा पढ़ने में आता है उस अनुसार बताना चाहूँगा कि श्रावण पूर्णिमा के दिन राखी बांधकर बहन अपने भाई से स्वयं की रक्षा करते रहने की प्रार्थना करती है जबकि ऋषि पञ्चमी के दिन बहन उपवास कर भाई को राखी बांधकर भगवान से हमेशा अपने भाई की कुशल-मंगल की कामना करती है। जबकि आज की बदली हुई परिस्थिति में दोनों ही पर्व पर अर्थात ऋषि पञ्चमी और श्रावण पूर्णिमा रक्षाबंधन दोनों ही पर्व पर, बहन-भाई दोनों को एक दूसरे की रक्षा का न केवल संकल्प की आवश्यकता है बल्कि दोनों को ही एक दूसरे की कुशल-मंगल की कामना करने की भी आवश्यकता है जैसा रक्षाबंधन का शाब्दिक अर्थ ‘सुरक्षा का बंधन’ स्पष्ट तौर पर इस ओर इंगित करता है।
आखिर निष्कर्ष में यही सत्य प्रतीत होता है कि दोनों ही पर्व बहन-भाई के रिश्तों की मधुरता को दर्शाता है। भारतीय परम्पराओं में इन पर्वों का विशेष महत्व है। ऐसे पर्वों से सामाजिक सम्बन्धों को मजबूती मिलती है। दोनों का अपना-अपना अस्तित्व ही नहीं है बल्कि पौराणिक एवं सामाजिक महत्व है और हमें दोनों के महत्व को समझकर उसका सम्मान करना चाहिए.. न की अपने अपने सुविधा अनुसार धर्म की रीति को बदलना उचित है...!
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