Bhartiya Parmapara

सत्संग बड़ा है या तप

हमें छोटेपन से ही हमारे माईतों ने समझाया है कि हमें अपनी दिनचर्या में से कुछ समय सत्संग के लिये निकालना ही चाहिए यानि हमें नियमित रूप से सत्संग में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी ही है। कभी भी या जब भी, आस-पास कहीं सत्संग हो वहाँ आपको बुलाया नहीं भी हो तो भी शामिल होने में संकोच नहीं करना चाहिये। इसके अलावा सत्संग केवल सुनना ही नहीं है बल्कि उस पर अमल करने का प्रयास अवश्य करना चाहिये। ऐसा वो क्यों समझते थे इसके लिए एक रोचक ऐतिहासिक वाकया है जो इस प्रकार है - 

बार विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी में इस बात‌ पर बहस हो गई, कि सत्संग बड़ा है या तप ???

विश्वामित्र जी ने कठोर तपस्या करके ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त किया था, इसलिए वे तप को बड़ा बता रहे थे।

जबकि वशिष्ठ जी सत्संग को बड़ा बताते थे।
वे इस बात का फैसला करवाने ब्रह्मा जी के पास चले गए।

उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा- मैं सृष्टि की रचना करने में व्यस्त हूँ। आप विष्णु जी के पास जाइये। विष्णु जी आपका फैसला अवश्य कर देगें।

अब दोनों विष्णु जी के पास चले गए।
विष्णु जी ने सोचा- यदि मैं सत्संग को बड़ा बताता हूँ तो विश्वामित्र जी नाराज होंगे और यदि तप को बड़ा बताता हूँ तो वशिष्ठ जी के साथ अन्याय होगा। इसलिए उन्होंने भी यह कहकर उन्हें टाल दिया, कि मैं सृष्टि का पालन करने मैं व्यस्त हूँ। आप शंकर जी के पास चले जाइये।

अब दोनों शंकर जी के पास पहुंचे।
शंकर जी ने उनसे कहा- ये मेरे वश की बात नहीं है। इसका फैसला तो शेषनाग जी कर सकते हैं।

अब दोनों शेषनाग जी के पास गए।
शेषनाग जी ने उनसे पूछा- कहो ऋषियों ! कैसे आना हुआ।
वशिष्ठ जी ने बताया- हमारा फैसला कीजिए, कि तप बड़ा है या सत्संग बड़ा है ? विश्वामित्र जी कहते हैं कि तप बड़ा है, और मैं सत्संग को बड़ा बताता हूँ।

शेषनाग जी ने कहा- मैं अपने सिर पर पृथ्वी का भार उठाए हूँ, यदि आप में से कोई भी थोड़ी देर के लिए पृथ्वी के भार को उठा ले, तो मैं आपका फैसला कर दूंगा।

तप में अहंकार होता है, और विश्वामित्र जी तपस्वी थे।
उन्होंने तुरन्त अहंकार में भरकर शेषनाग जी से कहा- पृथ्वी को आप मुझे दीजिए।
विश्वामित्र ने पृथ्वी अपने सिर पर ले ली। अब पृथ्वी नीचे की और चलने लगी।
शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी ! रोको। पृथ्वी रसातल को जा रही है।
विश्वामित्र जी ने कहा- मैं अपना सारा तप देता हूँ, पृथ्वी रूक जा। परन्तु पृथ्वी नहीं रूकी।

ये देखकर वशिष्ठ जी ने कहा- मैं आधी घड़ी का सत्संग देता हूँ, पृथ्वी माता रुक जा।
पृथ्वी माता वहीं रूक गई।
अब शेषनाग जी ने पृथ्वी को अपने सिर पर ले लिया, और उनको कहने लगे- अब आप जाइये।
विश्वामित्र जी कहने लगे- लेकिन हमारी बात का फैसला तो हुआ नहीं है।
शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी ! फैसला तो हो चुका है। आपके पूरे जीवन का तप देने से भी पृथ्वी नहीं रुकी, और वशिष्ठ जी के आधी घड़ी के सत्संग से ही पृथ्वी अपनी जगह पर रूक गई। फैसला तो हो गया है कि तप से सत्संग ही बड़ा होता है।

उपरोक्त तथ्य को ही किसी संत ने संक्षेप में इस तरह बयाँ किया है - 
"सत्संग की आधी घड़ी, तप के वर्ष हजार। तो भी नहीं बराबरी, संतन कियो विचार ।।" 

 



 

 

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