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एक आलस्य वह होता है, जिसमें शरीर आराम ढूंढ़ता है और कोई भी शारीरिक क्रिया करने से शरीर इन्कार कर देता है...और, एक आलस्य दिमाग से होता है, जो सुस्त और ऊबा हुआ महसूस कराता है।
हमारे दिमाग ने अगर एक बार सोच लिया कि "मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या करना है?" तो यह सोच दिमाग का आलस्य है... यानी, यदि हमें किसी ने कोई नया काम सौंपा या हमें ऐसे काम की ज़िम्मेदारी मिली है जो हमने कभी नहीं किया है, तो दिमाग ख़ुद को कष्ट देने से रोकता है।
इससे दिमाग को तो आराम मिलता है, लेकिन वह हमें आगे बढ़ने से रोकता भी है। लेकिन, अगर कोई नया काम हम करते भी हैं, तो ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा? हमसे गलती होगी, लेकिन गलतियों से हमें कुछ सीखने को मिलता है और जीवन में नए रास्ते भी खुलते हैं। इसलिए, हमें काम को सीखने के उद्देश्य से करना चाहिए, उसे बोझ समझ कर नहीं करें।
कभी-कभी हमारे दिमाग को डर जकड़ लेता है, कि "यह हमसे नहीं हो पाएगा", तब हम किसी भी चीज़ को हासिल करने के बजाए, वहीं थम जाते हैं.... इसके लिए पहले हम इस डर से बाहर निकलें एवं अपनी कमी को स्वीकार करें और वह काम करने की कोशिश करें, जिससे हम डर रहे थे।
किसी भी काम को करने से पहले यह सोचना कि "यह तो हमसे नहीं हो पाएगा" एक तरह की कायरता ही है। निश्चित मानसिकता भी हमें आलसी बनाती है, कभी-कभी कुछ करने से पहले ख़याल आता है कि अब सीखने की उम्र नहीं रही, लोग हंसेंगे, यही सोच कर हम आगे नहीं बढ़ पाते।
एक कहावत है कि पेड़ लगाने का एक सही वक्त 20 साल पहले था और दूसरा सही वक्त अभी है। अर्थात, कुछ सीखने की या कोई काम शुरू करने की कोई निश्चित उम्र नहीं होती, इसलिए हमें दूसरों के लिए नहीं वरन अपने लिए कुछ नया करना है, हमें ऐसा सोच कर काम करना चाहिए।
शरीर के साथ हमारा दिमाग भी एक बिन्दु पर आकर रुक जाता है, लेकिन सहन-शक्ति को बढ़ाने और ऊर्जा को एकत्रित करने के तरीके ढूंढे जा सकते हैं। हम जब भी आलस्य या थकान महसूस करें, तो थमने के बजाए अपनी ऊर्जा वापस लाने का प्रयास करें... पोषण, शारीरिक व्यायाम और ताज़ी हवा से हम ख़ुद को पुनः ऊर्जावान बनाने की कोशिश करें, और आलस्य, थकान व डर को खुद पर हावी नहीं होने दें।
हे परमात्मा!!....
सबका जीवन शांति और सुख से बीते, यही ईश्वर से प्रार्थना है।
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