Bhartiya Parmapara

वास्तु शास्त्र | वास्तुशास्त्र का उदगम

वास्तुशास्त्र का उदगम वेदों से हुआ है। प्राचीन काल में इसे स्थापत्य वेद के नाम से जाना जाता था। स्थापत्य वेद या वास्तुशास्त्र, अथर्ववेद का एक उपवेद है। अनेक पुराणों जैसे मत्स्यपुराण, अग्निपुराण इत्यादि में वास्तु के उल्लेख मिलते हैं। विश्वकर्मा और मय के साथ साथ अठ्ठारह अन्य ऋषि जैसे प्रभु बृहस्पति, नारद,अत्री इत्यादि वास्तु के मुख्य प्रवर्तक माने गए हैं। वास्तु विषय शास्त्रीय ग्रंथों जैसे मानसार, मयमतम्, समरांगण सूत्रधार में वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र, भरतमुनि का नाट्यशास्त्र, जैन एवं बौद्ध ग्रंथ, तंत्र तथा वृहत संहिता आदि ग्रंथों में वास्तु विषयक महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध है। इस प्रकार वैदिक काल से लेकर आज तक हमारे देश में वास्तु शास्त्र के उद्भव एवं विकास की दृष्टि से पर्याप्त सामग्री मिलती है। वास्तु शास्त्र ज्ञान विज्ञान का प्राचीन शास्त्र है। वास्तुशास्त्र में सभी प्रकार के भूखंड निर्माण संरचनाएं और रचनात्मक ऊर्जा समाविष्ट है ।जो शास्त्र भूमि और भवन में रहने वाले लोगों को अधिक सुख शांति सुरक्षा और समृद्धि के नियम सिद्धांतों तथा भविष्य का व्यवस्थित ज्ञान प्रदान करता है वही वास्तु शास्त्र है। आजकल की जिंदगी में तनाव और मुश्किलों के चलते हुए तन मन और जीवन में संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। वास्तुशास्त्र जीवन के संतुलन के लिए भूमि एवं भवन के संतुलन का प्रतिपादन करता है। वास्तु के आधारभूत सिद्धांतों में प्रमुख पंच तत्व पृथ्वी जल अग्नि वायु एवं आकाश तत्वों से मिलकर ही सारी सृष्टि का निर्माण हुआ है। वास्तुशास्त्र आंतरिक एवं बाह्य संतुलन स्थापित कर भवन में एक सामंजस्य स्थापित करता है। हर मनुष्य और हर भवन की अपने तरंगे होती है उदाहरण के लिए कितनी बार आपको अनुभव हुआ होगा कि किसी स्थान विशेष पर जाते ही आप अधिक शांत और प्रसन्न महसूस करते हैं ।इसी प्रकार कुछ स्थानों पर जाते ही आप अशांत और अनजान घबराहट या डर महसूस करने लगते हैं। हमारे शरीर और मन को आसपास का वातावरण प्रभावित करता है और हम अनजाने में वातावरण की सूक्ष्म तरंगों से प्रभावित होते हैं। वास्तु शास्त्र आपके लिए ऐसे भवन का निर्माण करता है जहां की सूक्ष्म तरंगे आपके अनुकूल हैं। जहां रहकर आप एक शांतिपूर्ण और समृद्ध जीवन जी सकें। एक बिल्डर मकान तो बना सकता है लेकिन सिर्फ वास्तु शास्त्र के अनुसार ही मकान को धर्म अर्थ काम और मोक्ष की पूर्ति करने वाले घर में बदला जा सकता है। 

वास्तु शास्त्र, सौर ऊर्जा, चुंबकीय प्रवाह, दिशाओं, वायु प्रवाह, गुरुत्वाकर्षण, ब्रह्माँड ऊर्जा और प्रकृति के अनंत शक्तियों का मनुष्य और आवास स्थान में संतुलन एवं सामंजस्य प्रदान करता है। वास्तु एवं ज्योतिष शास्त्र का विशेष संबंध है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। वास्तु के सार्वभौमिक सिद्धांतों को व्यक्तिनिष्ठ रूप ज्योतिष की सहायता से दिया जा सकता है। अगर शुभ मुहूर्त का निर्धारण और परिवार के मुखिया की जन्म पत्रिका के अनुसार भवन का निर्माण किया जाए तो बहुत ही शुभ फलदायक होता है। मनुष्य शरीर में अधीष्ठित सात चक्र पंचमहाभूत से प्रभावित होते हैं और जब उनका सही समीकरण नहीं बैठ पाता तब मनुष्य अपनी शारीरिक मानसिक और भावनात्मक क्षमताओं में संतुलन खो बैठता है हमारे ऋषियों ने ब्रह्माँड में निरंतर उत्पन्न हो रही विभिन्न ऊर्जाओं को अपनी दिव्य दृष्टि से पहचाना और उनका उत्तम प्रयोग मानवता के उद्वार हेतु किस प्रकार किया जाए उसे वास्तु शास्त्र के माध्यम से जनकल्याण के सूत्रों में समेटा । जन्म कुंडली में बलशाली ग्रहों के अनुसार एवं मनुष्य पर ग्रहों के होने वाले प्रभावों का एक निश्चित अनुमान निकालकर और उसके आधार पर वास्तु किया जाए तो वहां रहने वाले लोगों को सुख समृद्धि प्राप्त होती है । ज्योतिष में 12 राशियां और सात प्रमुख ग्रह होते हैं एवं उन ग्रहों की दिशाएं निश्चित है और वास्तु का उपयोग करते समय जो दिशाएं उपयोग में ली जाती है उन सभी पर एक एक ग्रह का आधिपत्य होता है ।



 

 

वास्तुशास्त्र

वास्तु पुरुष भूखंड में स्थित अनेक प्रकार की ऊर्जा और शक्तियों का मूर्तिमान रूप है ,इसी कारण भूखंड के स्वामी का वास्तु पुरुष के साथ सूक्ष्मता से एक आत्मिक संबंध स्थापित करने का महत्व है । वास्तु पुरुष का शीर्ष ईशान दिशा और पैर नेत्रत्य दिशा में होता है । वास्तु पुरुष एक पूर्ण वर्गाकार स्थिति में स्थित है अतः वास्तु शास्त्र में वर्गाकार प्लाट सर्वोत्तम माना गया है। वास्तु विज्ञान को समझने और उससे लाभान्वित होने के लिए सबसे पहले दिशाओं का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तु में 16 दिशाएं जिनमें मुख्य रुप से आठ दिशा और उनके बीच का स्थान ब्रह्म स्थान होता है । पूर्व दिशा पर सूर्य का आधिपत्य होता है, उत्तर दिशा पर बुध का ,पश्चिम दिशा पर शनि का , दक्षिण दिशा में मंगल का आधिपत्य होता है। जहां 2 दिशाएं मिलती हैं, उसके मध्य के स्थान को भी एक दिशा या कोण का नाम दिया गया है। जैसे पूर्व और उत्तर दिशा के मध्य स्थान को ईशान कोण ,ईशान दिशा कहा गया है जिस पर गुरु ग्रह का आधिपत्य है उत्तर और पश्चिम के मध्य को वायव्य कोण कहा गया है जिस पर चंद्र का आधिपत्य है पश्चिम और दक्षिण के मध्य नेत्रत्य कोण है जिस पर राहु और केतु का, पूर्व और दक्षिण दिशा के मध्य को आग्नेय कोण कहते है, जिस पर शुक्र का आधिपत्य होता है। 

भवन निर्माण चाहे वह आवासीय हो या व्यवसायी या बाग बगीचा हो उसमें भी अगर वास्तु के सिद्धांत और नियम के अनुसार कार्य किया जाए तो वहां का माहौल खुशनुमा होता है । वास्तु के अंतर्गत मिट्टी का परीक्षण, दिशा का ध्यान रखना, भूखंड का आकार महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि अलग-अलग आकार की विशेषता अलग अलग कार्य के लिए होती है। वास्तु अगर सही तरीके की भूमि को लेकर उस मिट्टी की जांच से लेकर नींव डालना और भवन निर्माण तक संपूर्ण कार्य में वास्तु के नियम और सिद्धांतों का उपयोग किया गया हो तो जीवन में सुख समृद्धि और खुशियां मिलती हैं। वास्तु का कम उपयोग करके भी लाभ लिया जा सकता है ।लेकिन अगर कुछ परेशानी आती है तो लोग वास्तु को दोष देते हैं जैसे उत्तर मुखी प्लाट शुभ होता है लेकिन उसमें भी अगर सही तरीके से निर्माण ना हो तो और परेशानी एवं समस्याएं आती है जैसे मुख्य द्वार पूर्व की जगह पश्चिम दिशा की और अधिक बढ़ा हुआ हो तो उस घर का मुखिया धन कमाने के लिए अधिकतर समय घर से बाहर ही रहता हैं, घर में ज्यादा दिन रह नहीं पाता है। उत्तर पश्चिम दिशा में मुख्य द्वार के पास ही अगर भूमिगत पानी की टंकी या बोरवेल हो तो घर में चोरी की समस्या बढ़ जाती है और महिलाएं घर में कम रहती है तथा चंचल होती हैं। उत्तर मुखी जमीन में अगर पश्चिम दिशा में अधिक खाली जमीन छोड़ देने से पुरुषों को शारीरिक मानसिक एवं आर्थिक समस्या का सामना करना पड़ता है। उत्तर मुखी घर में सेप्टिक टैंक दक्षिण दिशा में वास्तु अनुकूल नहीं है उसके कारण महिलाओं को अनेक कष्ट का सामना करना पड़ता है। इसी तरह घर की आंतरिक साज-सज्जा दिशाओं के स्वामी एवं उनके उपग्रह के आधार पर किचन , पानी का स्थान , शयनकक्ष इत्यादि का निर्माण किया जाना भी आवश्यक है।इसी तरह वृक्षों और पौधों को भी वास्तु के अनुरूप लगाकर उनसे लाभ प्राप्त किया जा सकता है। अगर किसी भवन में वास्तु अनुरूप कार्य ना किया गया हो तो उस दिशा की ऊर्जा कम हो जाती जहां वास्तु दोष होता है तो उस दोष को दूर करने के लिए के लिए उपाय के रूप में या तो उसको तोड़कर नया बनवा कर उपयोग में लिया जाए और अगर तोड़ नहीं सकते हैं तो उस दिशा की ऊर्जा बढ़ाने के लिए रंगों का, यंत्र का, चित्र का, पेड़ पौधे लगाकर और भी बहुत उपाय होते हैं जिससे उसके दोष कम किए जा सकते हैं और वहां की ऊर्जा बढ़ाई जा सकती है हर दिशा से अलग-अलग लाभ प्राप्त होते हैं, तो हमको कौन सा लाभ प्राप्त नहीं हो रहा है, उसके आधार पर ज्योतिष और वास्तु से उपाय करके उसको बढ़ा सकते हैं। जैसे हम कोई व्यापार कर रहे हैं लेकिन जिस वस्तु का व्यापार कर रहे हैं उस वस्तु से संबंधित ग्रह अगर जन्म कुंडली में कमजोर होते हैं तो हमको उससे संबंधित लाभ प्राप्त नहीं होता है। इसलिए पहले ज्योतिष के आधार पर व्यवसाय को निकाला जाता है और फिर उसके अनुरूप उसे वास्तु में उसकी दिशा की ऊर्जा को बढ़ाकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। जैसे उत्तर दिशा धन और समृद्धि की कारक है, पश्चिम दिशा प्रसिद्धि, भाग्य और ख्याति की दिशा है। उदाहरण के लिए अगर हम कोई काम शुरू करते हैं तो सबसे पहले उसमें उस काम को शुरू करना होता है। फिर उसके बाद क्लाइंट का आना और क्लाइंट आने के बाद उसको माल बेचना और उसके बाद उनसे लाभ प्राप्त करना, इन सब के लिए भी अलग अलग दिशाएं होती है। अगर एक भी दिशा में दोष होता है तो लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। अतः वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन का निर्माण करके सकारात्मक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।



 

 

Login to Leave Comment
Login
No Comments Found
;
MX Creativity
©2020, सभी अधिकार भारतीय परम्परा द्वारा आरक्षित हैं। MX Creativity के द्वारा संचालित है |