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मंदिर शब्द की उत्पत्ति कब हुई | मंदिर का निर्माण कब से शुरू हुआ?

भारतीय सनातन धर्म में मन्दिर का विशेष स्थान है। मंदिर शब्द संस्कृत भाषा से बना है। सरल भाषा में हिन्दुओं के उपासनास्थल को मन्दिर कहते हैं। वह देवस्थान जहां अपने आराध्य की पूजा - अर्चना होती है एवं आराध्य देव के प्रति ध्यान या चिंतन किया जा सके उस स्थान को मन्दिर कहते हैं। मन्दिर का शाब्दिक अर्थ 'घर' ही होता है।  

महाकाव्य और सूत्रग्रन्थों के अनुसार मंदिर की जगह देवालय, देवायतन, देवकुल, देवगृह, कोविल, देवल, देवस्थानम, प्रासाद, क्षेत्रम  आदि शब्दों का प्रयोग होता था। मंदिर का सर्वप्रथम उल्लेख यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ "शतपथ ब्राह्मण" में मिलता है।  

मंदिर का निर्माण सर्वप्रथम तक़रीबन दस हजार वर्षो पूर्व वैदिक काल में हुआ था। वैदिक काल में ऋषि जंगल के अपने आश्रमों में ध्यान, प्रार्थना और यज्ञ करते थे, जिनके लिए आश्रम में ही अलग अलग स्थान बनाये जाते थे। यही आश्रम बाद में मठ, शक्तिपीठ और गुरुकुल में परिवर्तित हो गए।  

पुरातन काल में मंदिर का निर्माण लकड़ी से होता था। उस समय लोग शिव मंदिर का निर्माण और स्थानीय देवी - देवता का निर्माण करते थे। तभी आज भी देश में सबसे प्राचीन ज्योतिर्लिंगों और शक्तिपीठों को माना जाता है। उसके बाद प्राचीनकाल में यक्ष, नाग, शिव - पार्वती, माँ दुर्गा, भैरव, इंद्रदेव और विष्णु भगवान की पूजा और प्रार्थना का प्रचलन आया। 7वीं शताब्दि में भारत देश में पत्थरों द्वारा मंदिरों का निर्माण होने लगा, जिसकी शुरुआत आर्य संस्कृति वाले लोगो ने की। इसके बाद मंदिर के प्रमाण हमे रामायण काल में भी मिलते है, जहां माँ सीता तथा उनकी तीनो बहनें गौरी पूजा के लिए महल के प्रांगण में बने मंदिर में जाती थी। प्रभु मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम का काल आज से लगभग 7 हजार 200 वर्ष पूर्व था यानि 5114 ईस्वी पूर्व में था। 

सोमनाथ के मंदिर का अस्तित्व के प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलते है इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में मंदिर परंपरा कितनी पुरानी है। इतिहासकारो के अनुसार ऋग्वेद की रचना 7000 से 1500 ईसा पूर्व हई थी। 

प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र माने जाते थे। बौद्धकाल और गुप्तकाल में हिन्दू मंदिरों को भव्यता प्रदान की जाने लगी और जो प्राचीन मंदिर थे उनका पुन: निर्माण किया जाने लगा। ये सभी मंदिर वास्तुकला और धर्म के नियमों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे। अधिकतर मंदिरो का निर्माण कर्क रेखा या नक्षत्रों के ऊपर  किया गया था। जिसका सबसे बेहतरीन उदाहरण "उज्जैन के महाकाल का मंदिर और ओंकारेश्वर में ओम्कारेश्वर- ममलेश्वर मंदिर" है। यह दोनों मंदिर १२ ज्योतिर्लिंगों में गिने जाते है। दोनों मंदिरों के स्थान और निर्माण रचना में वास्तुकला के साथ साथ आकाशीय ग्रह-नक्षत्रों की चाल, दिशा ज्ञान एवं मौसम को ध्यान में रखकर स्थान चयन किया गया है। 

पुरातन कल में मंदिर लकड़ी से बना एक कमरेनुमा होता था जिसमे एक खिड़की और छत होती थी। उसके बाद मंदिरो का वास्तु निर्माण बौद्ध शैली से होने लगा। जिसमे मंदिर के अन्दर एक गर्भगृह होता है जहां आराध्य देवता की मूर्ति स्थापित होती है। गर्भगृह के ऊपर गुंबद - नुमा (पिरामिड नुमा) रचना होती है जिसे शिखर (या, विमान) कहते हैं। मन्दिर के गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा के लिये थोड़ा स्थान होता है और एक छोटा अथवा बड़ा बरामदा होता है। ऋषि-मुनियों की कुटिया भी पिरामिडनुमा रचना के आकार की होती थी। हमारे प्राचीन मकानों की छतें भी कुछ इसी तरह की होती थी। यह रचना बाद के कालों में परिवर्तित होती नजर आयी है।



  

मंदिर स्थापत्य

पूर्व मध्यकालीन शिल्पशास्त्रों के अनुसार मंदिर स्थापत्य की तीन बड़ी शैलियाँ हैं – नागर शैली, द्रविड़ शैली और वेसर शैली | इन तीन शैलियों के अलावा भारतीय उपमहाद्वीप तथा विश्व के अन्य भागों में कुछ अलग शैलियाँ भी प्रचलित हैं - 

नागर शैली - 
नागर शैली का प्रचलन हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत माला तक देखा जा सकता है।  
नागर शैली में निर्मित मंदिरो में समतल छत से उठती हुई शिखर की प्रधानता पाई जाती है। नागर शैली के मंदिर मंदिरों की पहचान आधार से शिखर तक यह चतुष्कोणीय होते हैं। ये मंदिर उँचाई में आठ भागों में बाँटे गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- मूल (आधार), गर्भगृह मसरक (नींव और दीवारों के बीच का भाग), जंघा (दीवार), कपोत (कार्निस), शिखर, गल (गर्दन), वर्तुलाकार आमलक और कुंभ (शूल सहित कलश)। 

द्रविड़ शैली - 
यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविण शैली कहलाती है। द्रविड़ शैली कृष्णा और कावेरी नदियों के बीच की भूमि में प्रचलित है | इसमें मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह का ऊपरी भाग पिरामिडनुमा सीधा होता है, जिसमें कई मंजिलें बनी होती हैं। इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह हे कि ये काफी ऊॅंचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। प्रांगण में छोटे-बड़े कई मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड आदि बने होते हैं।  

बेसर शैली -  
बेसर का शाब्दिक अर्थ है "मिश्रित" होता है, यह शैली नागर और द्रविड़ शैली का मिश्रित रूप है। यह विन्यास में द्रविड़ शैली का एवं रूप में नागर शैली के समान होता है। इस शैली के मंदिर विंध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी तक निर्मित है। बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहते हैं। 

पगोडा शैली - 
पगोडा शैली नेपाल और इण्डोनेशिया में अत्यधिक प्रचलित है। यह शैली में गर्भगृह भूतल स्तर पर और छतौं का शृंखला अनुलम्बित रूप में एक के ऊपर एक होता है। इस शैली में निर्मित मन्दिर नेपाल का पशुपतिनाथ और बाली का पुरा बेसाकि प्रसिद्ध है | कुछ मन्दिर का गर्भगृह सम्मुचित स्थल में निर्मित होता है, जो भूस्थल से करीब ३-४ मंजिल के ऊंचाई पर स्थित होते है।  

अन्य शैलियां - 
स्तूपों के निर्माण के साथ ही हिन्दू मन्दिरों का मुक्त ढांचों के रूप में निर्माण होने लगा। हिन्दू मन्दिरों में देवताओ के अनुसार पौराणिक कथाएं हुआ करती थीं। मन्दिरों में प्रदक्षिणा पथ एवं प्रवेश के आधार पर तीन अन्य शैलियां भी मन्दिर निर्माण के लिए काम में आती थी - 

सन्धार - इस शैली के मन्दिरों में वर्गाकार गर्भ गृह को घेरे हुए एक स्तंभों वाली वीथिका (गलियारा) होती थी। इस वीथिका का उद्देश्य गर्भ गृह की प्रदक्षिणा था।  

निरन्धार - इस शैली के मन्दिरों में प्रद्क्षिणा पथ नहीं होता है। 

सर्वतोभद्र - इस शैली के मन्दिरों में चार प्रवेशद्वार होते हैं जो चारों मुख्य दिशाओ में स्थित होते हैं। इसको घेरे हुए १२ स्तंभों वाला प्रदक्षिणापथ भी होता है। इस प्रकार के मन्दिरों में सभी दिशाओ से प्रवेश मिलता है। 
 



  

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