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बालकथा - माँ का दर्द
माँ मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। वाह! मैदान भी हरा–भरा है। चीनू उछलते हुए अपनी माँ से कहने लगा; हम रोज आ कर खेलेंगे न.....!
हाँ बेटा चीनू; माँ ने हँसते हुए हामी भरी। खुले मैदान में चीनू जैसे और भी छोटे – छोटे बच्चे खेल रहे थे यह देख चीनू और भी खुश हो गया। चीनू की दोस्ती उन नन्हें –नन्हें बच्चों से हो गई। प्रतिदिन आते और मजे करते। इसी बहाने सबसे मिलना–जुलना भी हो जाता था। नील गगन के नजारे, ठंडी–ठंडी हवाएं, स्वच्छ वातावरण हृदय को छू लेती थी।
वहीं; सामने के बालकनी से नन्हीं प्रीत (बच्ची) भी इन्हें खेलते देखती और आनंद लेती; साथ ही साथ सोचती मैं भी इनके साथ खेलने जाती लेकिन...... दूर से देख कर ही मुस्कुराती।
आज शाम चीनू खेलते–खेलते थोड़ी दूर मैदान के दूसरे छोर पर चला गया। माँ अपनी सहेलियों से बात करने में व्यस्त क्या हो गई...
जैसे ही चीनू की माँ की नज़र हटी वैसे ही दुर्घटना घटी। एक विशाल दरिंदा बाज आया और चीनू को उठा ले जा रहा था। चीनू जोर–जोर से चिल्लाने लगा। माँ.... माँ मुझे बचाओ.... बचाओ.....।
सभी की नज़र चीनू की तरफ पड़ी। सभी दौड़ने लगे। प्लीज़ माँ मुझे बचा लो......! दर्द भरी आवाज से चीनू कराहने लगा। चीनू की माँ सुध-बुध खोने लगी। पैरों तले जमीन खिसक गई। साँसें तेजी से ऊपर–नीचे होने लगी। आँखों से ऑंसू थम नहीं रहे थे।
माँ भी चिल्लाने लगी; मेरे बेटे को कोई बचा लो.....। हे! विधाता ये क्या हो गया......?
मेरा चीनू मुझे लौटा दो। बाकी बच्चे अपने–अपने माता–पिता से सहम कर लिपट गए। थोड़ी देर बाद..... सभी चीनू की माँ को सांत्वना देने लगे। चुप हो जा री...... चीनू की माँ, चुप हो जा...। होनी को कौन टाल सकता है। हमारा जीवन कब तक है ऊपर वाले के अलावा कोई नहीं जान सकता। वो दरिंदा बाज न जाने कब से चीनू पर नज़र डाल रहा था। चीनू की माँ सुबकने लगी। बचाने की बहुत कोशिश की लेकिन आँखों से ओझल होते देर न लगी।
चीनू की आवाज सुन प्रीत झट से बालकनी में आ खड़ी हुई, जब तक काफी देर हो चुकी थी। चीनू बहुत दूर जा चुका था।
एक मां अपने बच्चे के दूर जाने से कैसे तड़प रही, प्रीत टकटकी लगाए देख रही थी; और मन ही मन स्वयं को कोसने लगी काश....!! मैं चीनू को बचा पाती। इंसान हो या पशु–पक्षी; माँ तो माँ होती है न....!
माँ का दर्द माँ ही जाने; आज मैं वहाँ पर जाती तो चीनू जो कि एक मुर्गी का बच्चा था शायद वह बच जाता।
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