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"यह दौलत भी ले लो यह शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी"
जगजीत जी की इस गझल से शानदार बचपन के वो सुखद पल आँखों के समक्ष उभर आते है और मन बरबस ही यह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है वर्तमान दौर के बच्चों का बचपन न जाने कहॉं खो गया ....?
अधिकांश अभिभावकों ने आज बच्चों का बचपन अपनी अभिलाषाओं के तहत रौंद दिया है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का भी इसमें पूरा योगदान है। परिवर्तन संसार का नियम है किंतु परिवर्तन हमें किस दिशा की और ले जा रहा है प्रगति की जगह कहीं पतन तो नहीं हो रहा। इतना समझना तो जरूरी है।
बच्चे तो माटी के घड़ों से है उन्हें सही रूप में ढ़ालने का दायित्व अभिभावकों का है। आज व्यस्त जीवनशैली के चलते अभिभावकों के पास समय का अभाव पाया जाता है भौतिक संसाधनों की पूर्ति कर वे अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझते हैं जो पूर्णतः अनुचित है। अभिभावक की उपाधि अपने साथ अनेक चुनौतीपूर्ण दायित्वों से हमे जोड़ देती है। अभिभावक बनने से पूर्व ही दायित्वों का निर्वहन भली भांति करने की मानसिकता बना लेनी चाहिए।
बच्चे जो देखते है वहीं सीखते है उसी से उनका आचरण निर्धारित होता है। आजकल हम देखते है दूध मुॅंहे बच्चे भी हाथों में मोबाइल ले खुश हो खेलने लगते है। आजकल छोटे छोटे बच्चों की टोलियां मैदानों में नजर नहीं आती अपितु भारी भरकम फीस देकर स्पोर्ट्स क्लबों में भेजने से अभिभावकों को संतुष्टि मिलती है। साथ ही यह उनकी शानोशौकत का प्रतिक भी हो गया है। एकतरफ हम बच्चों को चीजे बांटना सिखातें है तो दूसरी तरफ उन्हें अपने से कमतर समुदाय के लोगों से दूरी बनाए रखने हेतु सावधान भी करते है उनके भीतर ऊंच-नीच, अमीरी गरीबी की लक्ष्मण रेखा हम ही खींचते हैं। भविष्य में यह छोटी छोटी बातें उनके व्यक्तित्व विकास में किस तरह से बाधा निर्माण करती है यह हम समझ नहीं पाते बच्चों को खुलकर उनके बचपन का लुत्फ उठाने दें।
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सावन तो अब भी आता है किंतु अब ना कागज की कश्तियां नजर आती है न ही बारिश में भीगते हुए बच्चों का बचपन नजर आता है, न ही रेत के घरौंदे बनते है, न ही गुल्ली डंडा दिखता है, तितलियों के पीछे भागना उन्हें पकड़ना, पंछियों के घोंसलों को निहारना, पेड़ों से तोड़ फल खाना, छत पर लंबी कतारों में आसमान की खूबसूरती को निहारते हुए शीतल हवा में बेफिक्री की चादर ओढ़े गहरी नींद सोना सब कुछ जैसे खत्म हो गया है।
दो ढाई साल में ही बच्चों को प्ले स्कूल में भेज देते है, छः सात साल के बच्चों का जीवन तो पूरी तरह मशिनी हो जाता है। वह स्वच्छंद प्यारा बचपन गुम सा गया है। संयुक्त परिवारों में पहले बच्चे दादा दादी, नाना नानी से बोधात्मक, शुरवीरों की कहानियां सुनते थे जो उनके जीवन में संजीवनी का काम करती थी। अब एकल परिवार हो रहे है अपनी सुविधा के खातिर माता पिता बच्चों को इलेक्ट्रॉनिक खिलौने, मोबाइल, लॅपटॉप आदि दे देते है और जिस वजह से चारदीवारीयों में उनकी दुनिया सिमट गई है। मोबाइल, कम्प्यूटर में वो न जाने क्या क्या देखते है और समय से पूर्व ही उनमें परिपक्वता आ जाती है जो विकृत समाज को जन्म दे रही है और फिर यहीं समाज देश के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। एक घंटे का संस्कार वर्ग लगाने से संस्कारों का आना संभव नहीं होता संस्कारों की वास्तविक पाठशाला तो हमारा घर है।
बच्चों के जिज्ञासु मन को पढ़ना होगा उन्हें समय देना होगा उनकी भावनाओं को समझते हुए लक्ष्य निर्धारित करें। उनके शारीरिक और मानसिक विकास को सुदृढ़ करने में केवल एजुकेशनल गेम्स नहीं मैदानों की खुली हवा भी बहुत जरूरी है तभी तो वह सही ढ़ंग से पनप पायेंगे।
बच्चों के मन की पीड़ा को समझे और उन्हें अवसर दे अपनी प्रतिभा को निखारने का, उड़ने दे खुले आसमान में, पंछी वहीं अधिक विकसित होता है जो बंद पिंजरे में नहीं खुले गगन में विचरण करता है। हमारे आज के नन्हें मुन्नों के हाथों कल देश का भविष्य होगा इसलिए हमें बहुमुखी प्रतिभा को तैयार करना है केवल भारी भरकम बस्ते और अपनी अभिलाषाओं के तहत हमें बच्चों के बचपन को खत्म नहीं करना है उन्हें बचपन के सुखद पलों को खुलकर जी लेने दो, लौटा दो उन्हें उनका सुनहरा बचपन।
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