Bhartiya Parmapara

एक चुटकी गुलाल - लघुकथा

मम्मा मम्मा क्या पापा होली पर हमारे साथ रंग खेलने भी नहीं आयेंगे भगवान जी को बोलिये ना मेरे पापा को चार दिन तो छुट्टी दे, ढाई साल की परी रंगोत्सव मनाने के लिए आतुर हो रही थी, दिव्या अपनी भावनाओं को काबू में रखने का भरसक प्रयास कर रही थी, आंसुओं का सैलाब उमड़ कर बहना चाहता था किंतु वह संयमित हो उन्हें रोकने में कामयाब रही, उस मासूम सी कली को सच्चाई से रूबरू कराने का साहस जुटा न पायी किंतु ससुर जी के अनुभवी आंखों से उसके मनोभाव छुप न सके वह परी से कहने लगे पापा जरूर आयेंगे बेटी।

पाँच साल पहले दिव्या ढेरों सपने लिए बाबुल के आंगन से विदा हो ससुराल के दहलीज की रौनक बनी, ऐसी गुणवान बहू पाकर गौरी - शंकर जी के सभी अरमान मानो पूरे हो गये। बहू ने हमेशा उन्हें माता पिता समझा और वैसा ही प्यार और आदर दिया, परिवार में प्यार की गंगा बह रही थी तभी मगरमच्छ रूपी कोरोना ने घर के एकलौते चिराग अमन को निगल लिया परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।

दिव्या अपने सास ससुर के प्रति अपने दायित्वों को भली भांति समझ रही थी। सभी तरफ से उस पर पुनर्विवाह हेतु जोर डाला जा रहा था  किंतु वह जानती थी उसके और परी के जाने से यह घर और वीरान हो जायेगा, सासू माँ भी अक्सर बीमार रहने लगी थी। उस रात परी जल्दी सो गई तब शंकर जी ने अपनी बहू को बैठक में बुला अपने पास बैठाया और समझाने लगे बेटी जैसे तुम अपना दायित्व ईमानदारी से निभाना चाहती हो वैसे ही एक पिता होने के नाते मैं भी तुम्हें सही हाथों में सौंपना चाहता हूँ वरना मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी बेटी, कोरोना में हम जैसे कई परिवार उजड़ कर बिखर गये है यहां से करीब ही मेरे मित्र रहते है उनकी बहू भी कोरोना का शिकार हुई है उस बिखरे घर की खुशियां समेट कर उन्हें तुम लौटा सकती हो बेटी और इस घर पर तो तुम्हारा पूरा अधिकार है तुम्हें यहां से बेटी की तरह विदा करेंगे, मैं जानता हूँ तुम हमें अकेले छोड़कर जाना नहीं चाहती पर विनीत का घर पास ही है तुम हमसे मिलने आते रहना। 



   

 

"मैंने गांव से दामू और उसकी पत्नी को घर के कामकाज और पूरी व्यवस्था संभालने हेतु बुला लिया है, जानता हूँ बेटी वह केवल काम करेगा उसके कार्यों में तुम्हारी तरह प्रेम, डांट, अपनापन नहीं होगा लेकिन विधाता को यहीं मंजूर है कहते कहते उन की आँखें डबडबा गई।" दिव्या अपने पिता समान ससुर का हाथ थाम कर रोने लगी, बोलने लगी मुझे आपसे अलग मत किजिए पापा मैं अमन की स्मृतियों संग रह लूंगी। बेटी भावनाओं में बहकर निर्णय लेना आसान है उसे निभाना बहुत मुश्किल है। एक पिता होने के नाते मुझे अपना कर्तव्य निभाने दो बेटा, मेरी अपने मित्र से बात हो चुकी है अभी होली को पंद्रह दिन बाकी है, तुम्हें अपने आप को नये माहोल में सामंजस्य स्थापित करने हेतु मानसिक रूप से तैयार रहना होगा इसलिए तुम्हें आज यह बात बताना जरूरी समझा, तुम निश्चिंत रहो मैं तुम्हारे साथ हूँ, कहते हुए उन्होंने कहा बेटी रात गहरा गई है तुम आराम करो कल ही दामू और उसकी पत्नी आ जायेंगे तब तुम स्वयं उसे अपने घर के तौर तरीके खान-पान सब समझा दोगी तो तुम्हें तसल्ली रहेगी।

पंद्रह दिन बीत गये विनीत अपने पांच वर्षीय बेटे ऋत्विक और पापा के साथ होली का शगुन लेकर आया। कुछ ही देर में परी और ऋत्विक इतने घुल मिल गए पिचकारी के रंगों की बौछार एक दूजे पर करने लगे इन रंगों ने बहुत कुछ खोया हुआ लौटा दिया। दिव्या ने ये सब देखकर शादी के लिए हामी भर दी। विनीत ने चुटकी भर गुलाल दिव्या को लगाया, आज होली के रंगों ने दो लोगों को‌ जीवन की खुशियाँ लोटा दी और सभी का जीवन रंगीन कर दिया। रिश्तों में प्रेम के रंग घुलमिलकर गहराने लगे, बेटी होली के रंगों सा रंगीन तुम्हारा जीवन सफर हो, मुझे पूरा विश्वास है तुम निर्मल जल की तरह हो जो हर रंग में एकरूप होना जानता है तुम्हें अपने नये परिवार में स्नेह का गुलाल उड़ाना होगा।   
 



    

 

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