Bhartiya Parmapara

खुशियों के दीप – उम्मीद और संघर्ष की एक भावनात्मक दीपावली कहानी

दीपावली जैसे जैसे करीब आ रही थी गेंदा का दिल बैठे जा रहा था, तीन वर्षों से अभावों के चलते वह अपने प्राणो से प्रिय बच्चों को मिठाई खिलाने में भी असमर्थ थी। चिंता के सागर में डूबी सोचने लगी काश! यह आतिशबाजी और दीपों की जगमगाहट न होती तो बच्चों को दीपावली के आने का अहसास ही न होता और न ही त्योहारों की लालसा में कुछ पाने के लिए उनके मन में छटपटाहट रहती। तीन वर्ष पहले रात दिन एक कर गेंदा ने बड़ी तन्मयता से अलग-अलग तरह के माटी के कितने ही दीप बनाये और उन दीपों के सहारे अनगिनत सपनों के ताने बाने बुनते हुये उसके मुखमंडल पर तेजोमय कांति छा गई काल्पनिक ही सही, पर ख्वाबों पर तो सभी का अधिकार होता है।

अपने ख्वाबों को साकार करने की तीव्र इच्छा शक्ति लिए वह उन दीपों को सहेज कर बाजार की और निकलने लगी, छोटे छोटे बच्चों को अकेले छोड़ते हुए उसका हृदय अबकी जरा भी न पसीजा, उनकी खुशियां ही तो खरीदने निकली थी वह। आते हुए मिठाई नये कपड़े लाने का आश्वासन देकर निकली थी बच्चों को। रवि अपने स्वर्णिम रथ पे सवार होकर निकले उस से पूर्व ही बाजार पहुँच उसने अपनी जगह आरक्षित करली, मृदुभाषी होने से बहस और झंझटों से किनारा ही करती अच्छी जगह पाकर आश्वस्त हो चैन की सांस ली। अब वह बेसब्री से सूर्य देव के आने की प्रतीक्षा करने लगी किन्तु आज बादलों ने मानों किरणों के पट खुलने ही न दिये और अपना वर्चस्व कायम रखा। कुछ ही देर में इंद्रदेव के आदेश से जमकर मेघों ने ढोल नगाड़े बजाना प्रारंभ किया गेंदा भीतर से मायूस थी किन्तु प्लास्टिक की पन्नी से दियों को ढ़कते हुए स्वयं को समझाने का प्रयत्न करने लगी कुछ देर में बरखा का नृत्य थम जायेगा और बाजार फिर राहगीरों से सजने लगेगा किन्तु सपने खिले उस से पूर्व ही उन्हें ग्रहण लग गया सावन भादो में भी न हुई, इतनी तूफानी वर्षा हुई, देखते ही देखते सूर्यास्त के साथ साथ उसके सारे सपने पानी बहा ले गया और उसके हिस्से आया केवल अंधेरा। ठंड में कपकपाती हुई घर आयी तो चूल्हा जलाने की हिम्मत भी न जुटा पायी बच्चे भी मॉं की मनोदशा भाँप चुके ‌थे। बच्चे सहमे से जल पान कर सो गये] मां का वात्सल्य ऑंखों से झरझर बहता हुआ बच्चों पर बरसने लगा था।

अतीत के पूर्वाग्रहों को झकझोर पुनः उसने स्वयं के भीतर शक्ति को संचारित किया और जुट गई खुशियों के दीप प्रज्वलित करने की मंशा से पता था उसे आज की शिक्षित पीढ़ी जरूर उसके परिश्रम का मूल्य जानेगी और इन माटी के खूबसूरत दियों से स्वयं के साथ ही हमारा ऑंगन भी रोशन करेगी। गेंदा आज अधिक स्फूर्ति से निकली आज वो बाज़ार का नहीं मानो बाजार में चलते राहगीर उसकी कलाकृति का इंतजार कर रहे थे अब की सूरज उसके ऑंगन में भी अपनी स्वर्णिम छटा को बिखेरेगा इसी विश्वास के साथ।

                      

                        

Login to Leave Comment
Login
No Comments Found
;
MX Creativity
©2020, सभी अधिकार भारतीय परम्परा द्वारा आरक्षित हैं। MX Creativity के द्वारा संचालित है |