Bhartiya Parmapara

दुआ - लघुकथा

चिलचिलाती धूप में जैसे ही सिंग्नल की लाल बत्ती जली मन ही मन‌ मैं बड़बड़ाई कभी गोद में लेटी परी को देखती तो कभी सिंग्नल को। कल रात से परी का बुखार कम हो ही नहीं रहा था उस चंचल परी की चुप्पी देख मॉं का  हृदय व्यथित हो उठा। डॉक्टर ने कुछ दवाईयां बदल कर दी और कहॉं कुछ खिलाने के बाद यह दवाईयां देनी होगी, इनसे भी आराम ना मिले तो कल एडमिट करना होगा। घर पहुँच कर‌ दवा देने की जल्दी थी।

तभी एक महिला कार के शीशे के समीप आ खडी हुई ‌अपनी पीठ पर छोटे से बच्चे को मटमैलै सारी के ऑंचल से बांध रखा था, सुखा हुआ शरीर, मुरझाया सा वह बच्चा और सूरज का प्रकाश मानो परवान चढ़ने बेताब हो रहा था। उस चिलचिलाती धूप में महिला के हाथ में गुब्बारें थे पसीने में नहाया शरीर पैरों में चप्पल नहीं। कितनी ही कारों के शीशों से उसे झिड़कियां मिल रही थी जिन्हें निगलने की शक्ति तो ‌उसे परमात्मा ने दे रखी थी पर, पापी पेट के आगे वह मजबूर थी।

वह बार बार गुब्बारे लेने की विनती ‌कर‌ रही थी। आज लंबे अंतराल बाद कोरोना का भय कम हुआ था जिससे उसकी ऑंखों में चमक थी उसके मन में आस थी आज वह अपने बच्चों को कुछ खिला सके।

शायद आज घर का चुल्हा जले मैंने सारे गुब्बारों की कीमत पूछी जो डॉक्टर की फीस से काफी कम थी, गुब्बारे ले उसे रुपए दे दिए और साथ में बिस्किट का पैकेट और पानी की बोतल दी, इसके अलावा कुछ अतिरिक्त रुपए भी दिए तथा उसे कहा इससे तुम चप्पल खरीद लेना वह हाथ जोड़कर शुक्रिया अदा करने ‌लगी। उसके ऑंखों की चमक देखकर मन को संतुष्टि मिली।

घर पहुँच कर परी को भोजन करवाया कल रात से उसने कुछ नहीं खाया था आज भोजन कर खेलने लगी थी। दवा तो अभी उसके पेट में गई ही नहीं थी उसका बुखार भी उतर गया मैं असंमजस में घिरी सोच रही थी शायद दवा से अधिक दुआ असर कर गई। 



   

 

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