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परवरिश
मन आत्मग्लानि से लबरेज था धिक्कार है ऐसे मातृत्व पर, आज स्वयं पर ही क्रोध आ रहा था। आँखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हुए जा रही थी। मैं अवि को और वे मुझे सजल नैनों से बस देख रहे थे। "संतानोत्पति करना तो बहुत सरल है, पर परवरिश करना बहुत मुश्किल।" आज बेचैन मन कुछ सोच पाने की क्षमता भी खो चुका था। तभी अंश के चाचा आये। उन्होंने ही हिम्मत दी और अंश की तस्वीर लिये वह सीधे पुलिस स्टेशन जा पहुँचे। पूरा दिन निकल गया पर अंश का कहीं पता नहीं चला, न जाने कहाँ गया होगा। जब तक कोई चीज़ हमारे पास होती है, हमें उसकी महत्ता समझ नहीं आती। आज एक एक पल ऐसे बीत रहा था मानो सदियाँ गुजर रही हों। हाथ पैर शक्तिहीन हो चुके थे। कुछ ही पल में व्हाट्सअप पर गुमशुदा लिखकर अंश की तस्वीर आ गई, जो आग की तरह लोगों तक पहुँच गई। फिर रिश्तेदारों और परिचितों के फ़ोन का सिलसिला। जब कि उन हालात में मन इतना घायल हो चुका था कि किसी से बात करने की मनःस्थिति थी ही नहीं।
आज मुझे और अवि को अंश से जुड़ी एक एक बात याद आ रही थी। हमने कहॉं उसे उसका बचपन जीने दिया। हर बात पर रोक टोक, जैसे वह हमारा बच्चा न होकर कोई खिलौना हो, जिसके जरिए हम हरपल मात्र वाह वाही लूटकर बधाई का पात्र बने रहना चाहते थे। मात्र ढाई साल का था अंश, नर्सरी में तीन साल के पहले एडमिशन नहीं होना था। हमने समय बरबाद न हो इसलिए छह माह बढ़ाकर उसकि आयु का झूठा सर्टिफिकेट बनवा दिया। छोटी उम्र में ही नर्सरी में उसका एडमिशन करवा दिया था। आगे आगे कठिन पाठ्यक्रम समझ न आनेपर हम उसपर पढने का अत्याधिक जोर देते, जिस से वह हमेशा चिड़चिड़ा सा रहने लगा। घर के सामने ही छोटा सा गार्डन था, जहॉं छोटे छोटे बच्चे खेलते रहते थे। उन्हें देख वह भी खेलने जाने की जिद करता, पर हम अंश पर एकाधिकार जमाए अपना वर्चस्व बनाए रखते।
उसका मन भी खुले आसमान में उड़ना चाहता था किंतु उसके परो को हमने बाँध दिया था। घर में ही खिलौनों का ढेर था। सभी एजुकेशनल गेम्स ही थे। स्कूल में पढ़ना, ट्यूशन में पढ़ना और तो और गेम्स के जरिये भी कभी स्पेलिंग बनाओ तो कभी टेबल याद करो...। इसलिए उसे उन खिलौनों में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी।
दीपावली पर बच्चे मिट्टी का किला बनाते, बारिश में रेत का घर, सावन की रिमझिम फुहार में भीगते कागज की कश्ती बनाकर पानी में छोड़ते उसे अपलक निहारते, कभी लुका छुपी खेलते पर हमनें समय की बरबादी, इन्फेक्शन, बाहर से गाली गलौच न सीख आए, यह सब सोचकर उसे घर में ही कैद कर रखा था। ये छोटी छोटी चीजें बच्चों को कितना खुश करती हैं, उनमें ऊर्जा का संचार करती हैं, यह समय रहते हमने समझा ही नहीं। उसके सर्वांगीण विकास में हम ही बाधा बन खड़े थे। उसकी इच्छा रहे न रहे, हम जबरन उसे हर स्पर्धा का हिस्सा बनाते। पिछड़ जाने पर कितनी ही बार बेरहमी से मारा भी है। धीरे धीरे वह पढ़ाई से भागने लगा था, उसका मन हमारे प्रति विद्रोही हुआ जा रहा था। उसकी लाचारी, बेबसी को हमने समझा ही नहीं।
मानव की सायकलॉजी है कि जो चीज उसे नहीं मिलती, उसके प्रति उसमें गहन आकर्षण रहता है। अपने हम उम्र दोस्तों को देखता कितनी मस्ती से खेलते हैं, गणेशोत्सव के समय तथा अन्य सार्वजनिक उत्सवों में सहभागी होते है। लेकिन अंश की दुनिया को हमनें चार दीवारों में समेट रखा था। आज जब अहसास हुआ तो देर हो चुकी थी। पिंजरे में कैद हुए पंछी को जब खुला गगन मिल जाए, वह पलटकर नहीं देखता, बस अपनी ही गति से आसमान छूने का प्रयास करता है। पूरी रात ऊहापोह में निकल गई। एक अनजाना भय पल पल मानो सांस रोक रहा था। अवि भी पलभर नहीं सो पाए थे। हम दोनों के बीच पूरी रात सन्नाटा छाया रहा। दोनों ही स्वयं को दोषी मान रहे थे। शायद दोनों में से एक भी उसकी भावनाओं को समझ लेता तो आज यह स्थिति नहीं होती। खास तौर पर देखा जाए तो बच्चों के दिल के तार मॉं के दिल से इस तरह जुड़े होते हैं कि माँ बिना कुछ कहे बच्चे के अंतर्मन के भाव पढ़ लेती है। आज तो स्वयं से नज़रें मिलाने के काबिल नही थी मैं, जैसे तैसे उठकर चाय बनाने गई।
रसोई के ठीक सामने वाली बालकनी में कपड़े सुखाने के लिए रस्सियाँ बँधी थीं। जाली और रस्सी का सहारा ले चिड़िया वहा घोंसला बना रही थी। करीब करीब पंद्रह दिन हो चुके थे। घोंसला बन उसमें अंडे आ चुके थे। रोजाना कपडेवाली भी बड़े ही सावधानी से कपड़े सुखा रही थी। कहीं रस्सी को धक्का लग कर घोंसला न टूट जाए। कितनी समझ थी उन मूक प्राणियों में। रोज़ जब भी रसोई में जाती, नज़र खिडकी से होकर उस घोंसले पर पड़ ही जाती। जबसे उसमें अंडे आये मैंने देखा पूरा समय चिड़िया वही बैठी रहती। उसका साथी ही दाना पानी की व्यवस्था करता। एक दिन सुबह उन अंडों में से छोटे छोटे तीन चिड़िया के बच्चे आये। मैंने देखा अब तो चिड़िया या उसका साथी पलभर भी उन्हें अकेला नही छोड़ते। आज उस दृश्य को देख ऑंखों से अश्रु बाँध फूट पड़ा। आज ये मूक प्राणी जैसे मुझे पेरेंटिंग का पाठ पढ़ा रहे थे और वह अनपढ कामवाली भी कितने जतन से कपड़े सुखाती, कहीं उस मूक प्राणी को किसी तरह से तकलीफ न हो और याद से कहते हुए जाती बीवीजी रस्सी से कपड़े उतारें तो ख्याल रखियेगा। चिड़िया के बच्चे गिर न जाएं और एक मैं जो खुद के बच्चे की भावना का गला घोंटती रही थी।
चाय उफन कर गिर चुकी थी और मैं विचार मग्न। काश, यही आत्मचिंतन पहले किया होता तो इस तरह प्रायश्चित की ज्वाला में तपने की नौबत ही क्यों आती। पर अब तो हर सवाल के आगे ऐसा प्रश्न चिह्न लगा था जिसका जवाब हमें मिल तो गया, पर इम्तिहान के बाद मिला हुआ जवाब कहॉं कोई मायने रखता है।
चार दिन निकल चुके अंश का कही कोई पता नहीं चला। न उसके पास मोबाइल, न ही घर से कोई रुपए लेकर गया। ग्यारहवीं में था अभी, शायद वह हमारी अपेक्षाओं का बोझ उठाने में असमर्थ था। आज सुबह ट्यूशन गया तो फिर घर आया ही नहीं। बस एक चिट्ठी मिली, जिसमें लिखा था मैं घर छोड़कर जा रहा हूँ।
अभिभावक बनने से पहले बच्चों का मनोविज्ञान जरूर जानना चाहिये, वरना मेरे और अवि के जैसा हाल होगा। हमारी जिंदगी में कभी न खत्म होने वाला गहन अंधियारा छा चुका था।
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