Bhartiya Parmapara

पितृपक्ष की एक भावनात्मक कथा | Pitru Paksha

"राघव ! तुम तो माँ की तस्वीर को ऐसे निहार रहे जैसे सचमुच मां तुम्हें देख रही हो ..."

गीता, माँ भले ही मुझसे दूर है पर मैं उनका आशीर्वाद हर पल अपने साथ महसूस करता हू्ं, और न जाने क्यों पितृपक्ष के यह पंद्रह दिन अधिक ही प्रसन्नतापूर्वक जाते हैं लगता है जैसे माँ यहीं घर में साथ हैं, और आज तो माँ का श्राद्ध‌ है।

राघव हमारा यहां जब से तबादला हुआ है मुझे तो फैक्ट्रियों की कर्कश ध्वनि के अतिरिक्त, यहां कभी किसी पंछी के चहकने की मधुर आवाज़ सुनाई नहीं आयी और नहीं कभी कौआ दिखाई दिया।

"गीता, तुम जल्दी गौ माता का प्रसाद दो, पंडित जी भी जल्द ही आनेवाले हैं।" मैं पहले गौमाता को प्रसाद देकर आता हूं। 
तुम्हें चार किलोमीटर की दूरी पर जो मंदिर है वहीं गौमाता मिलेगी, हां पता है मुझे]"

अरे राघव! इतनी हड़बड़ी क्यों भाई, कहीं जा रहे हो ? 
हाँ श्याम आज माँ का श्राद्ध हैं गौमाता को प्रसाद देकर आता हूं।

अरे भाई कौनसे जमाने में जी रहे हो, पहले ही क्या काम की परेशानियां कम है जो वहीं रुढीवादी पूरानी सोच अपना रखी है, भाई मैं तो इन सब से दूर ही रहता हू्ं वैसे ही जीवन में परेशानियों का मेला लगा हुआ है, चलो तुम जा ही रहे हो तो मुझे भी अस्पताल छोड़ दो बेटे को एडमिट किया है उसकी किडनी में कुछ इंफेक्शन हुआ है चिंता का विषय है, काम धंधा अलग से ठप्प हुआ है।

श्याम मेरी जिंदगी तो बड़ी इत्मीनान से गुजर रही है न जाने कौनसी अदृश्य शक्ति मुझे हर कार्य में सफलता देती है, कभी बाधा आती भी है तो कुछ दिनों में सब सामान्य हो जाता हैं, चलो मिलते हैं।

"अरे गीता, ओह गीता जल्दी से कागोल निकालकर दो छत पर रखकर आता हूं, राघव तुम अपनी संतुष्टि कर लो‌ इस शोर में कौओ का आना मुमकिन ही नहीं, तुम दो मैं ‌देखता हूं, राघव छत की और जाने लगा वहां पहली से ही कौओ की जोड़ी मौजूद थी वह प्रसाद रख कर हाथ जोड़ने लगा उसके भीतर शांति की सुखद लहर दौड़ने लगी उसके विश्वास की जीत जो हुई।

 

                    

                      

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