हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष दोनों पक्षों की एकादशी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। एकादशी का व्रत एवं उपवास अनंत फलदाई होता है। एकादशी का व्रत करने वाले व्यक्ति को जीवन काल में अवश्य ही पुण्य मिलता है एवं मृत्यु उपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है।
माघ माह के कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली एकादशी को षटतिला एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस उपवास को करने से जहां हमें शारीरिक पवित्रता और निरोगता प्राप्त होती है, वहीं अन्न, तिल आदि दान करने से धन-धान्य में बढ़ोत्तरी होती है। मनुष्य जो और जैसा दान करता है, शरीर त्यागने के बाद उसे फल भी वैसा ही प्राप्त होता है, अतः धार्मिक कृत्यों के साथ-साथ हमें दान आदि अवश्य करना चाहिए। शास्त्रों में वर्णित है कि बिना दान किए कोई भी धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं होता।
षटतिला का अर्थ एवं महात्म्य जाने से पहले आइए इस एकादशी से जुड़ी हुई पौराणिक कथा को जानते हैं।
पौराणिक कथा इस प्रकार है –
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से एकादशियों का माहात्म्य सुनकर श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम करते हुए अर्जुन बोले "हे केशव! पौष माह के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली एकादशी की कथा का वर्णन करें।"
अर्जुन की यह वचन सुनकर श्री कृष्ण अर्जुन से बोले “हे अर्जुन! आज मैं षटतिला एकादशी व्रत की कथा सुनाता हूँ।
एक बार दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा - हे ऋषिवर मनुष्य मृत्युलोक में रक्तबहाव आदि महापाप करते हैं और दूसरे के धन की चोरी तथा दूसरे की उन्नति देखकर ईर्ष्या आदि करते हैं, ऐसे महान पाप मनुष्य क्रोध, ईर्ष्या, आवेग और मूर्खतावश करते हैं और बाद में शोक करते हैं, ऐसे मनुष्यों को नरक से बचाने का क्या उपाय है जिससे ऐसे मनुष्यों को नरक से बचाया जा सके अर्थात उन्हें नरक की प्राप्ति न हो। ऐसा कौन-सा दान-पुण्य है, जिसके प्रभाव से नरक की यातना से बचा जा सकता है ?
दालभ्य ऋषि की बात सुन पुलत्स्य ऋषि ने कहा - हे मुनि, जिस रहस्य को देवता भी नहीं जानते, वह मैं आपको अवश्य ही बताऊंगा। ऐसे मनुष्य को स्नान आदि से शुद्ध रहना चाहिए और इंद्रियों को वश में करके तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या तथा अहंकार आदि से सर्वथा बचना चाहिए एवं एकादशी के व्रत का पालन करना चाहिए।
एक बार नारद जी ने भी श्रीहरि से षटतिला एकादशी का माहात्म्य पूछा, वे बोले- हे प्रभु! आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें। षटतिला एकादशी के उपवास का क्या पुण्य है? उसकी क्या कथा है, कृपा कर मुझसे कहिए।
नारद जी की प्रार्थना सुन भगवान श्रीहरि ने कहा - हे नारद! मैं तुम्हें प्रत्यक्ष देखा सत्य वृत्तांत सुनाता हूँ, कृपया ध्यानपूर्वक सुनिए।
बहुत पहले मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहा करती थी। वह नित्य व्रत-उपवास किया करती थी। एक बार उसने एक मास तक उपवास किये थे, इससे उसका शरीर बहुत कमजोर हो गया। वह अत्यंत बुद्धिमान थी। फिर उसने कभी भी देवताओं तथा ब्राह्मणों के निमित्त अन्नादि का दान नहीं किया। मैंने चिंतन किया कि इस ब्राह्मणी ने उपवास आदि से अपना शरीर तो पवित्र कर लिया है जिससे इसको वैकुंठ लोक तो प्राप्त हो जाएगा, परन्तु कभी अन्न का दान नहीं किया है, और अन्न दान के बिना जीव की तृप्ति होना कठिन है।
ऐसा चिंतन कर मैं मृत्युलोक में गया और उस ब्राह्मणी से अन्न की भिक्षा मांगी। इस पर उस ब्राह्मणी ने कहा - हे योगीराज! आप यहां किसलिए पधारे हैं? मैंने उनसे कहा - मुझे भिक्षा का दान चाहिए। इस पर उसने मुझे एक मिट्टी का पिंड दान में दे दिया। मैं उस पिंड को लेकर स्वर्ग वापस लौट आया। कुछ समय व्यतीत होने पर ब्राह्मणी शरीर त्यागकर स्वर्ग में आई। मिट्टी के पिंड दान के प्रभाव से उसको स्वर्ग में एक आम वृक्ष सहित घर मिला, परन्तु उस घर में अन्य वस्तुओं नहीं मिली। वह घबराते हुए मेरे पास आई और बोली - हे प्रभु! मैंने अनेक व्रत-उपवास आदि से आपका नित्य पूजन किया है, किंतु फिर भी यहां घर में वस्तुओं नहीं है सब रिक्त है, इसका क्या कारण हो सकता है?
मैंने उनसे कहा - तुम अपने घर जाओ और जब देव-स्त्रियां तुम्हें देखने आए तब उनसे षटतिला एकादशी व्रत का माहात्म्य और उसका विधान पूछना। जब तक वह यह न बताए तब तक द्वार मत खोलना।
प्रभु के कहे अनुसार वह अपने घर गई और जब देव-स्त्रियां उससे मिलने आईं तो द्वार खोलने के लिए कहा। तब उस ब्राह्मणी ने श्री हरि के वचनानुसार उनसे कहा - यदि आप मुझे देखने आई हैं तो पहले आप मुझे षटतिला एकादशी का माहात्म्य बताए तभी आपसे मिलूंगी।
तब उनमें से एक देव-स्त्री ने कहा - यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो ध्यानपूर्वक श्रवण करो, मैं तुमसे एकादशी व्रत और उसका माहात्म्य विधान सहित कहती हूं।जब उस देव-स्त्री ने षटतिला एकादशी का माहात्म्य सुना दिया, तब उस ब्राह्मणी ने द्वार खोल दिया। देव-स्त्रियों ने ब्राह्मणी को सब स्त्रियों से अलग पाया। उस ब्राह्मणी ने भी देव-स्त्रियों के कहे अनुसार षटतिला एकादशी का उपवास किया और उसके प्रभाव से उसका घर धन्य-धान्य से भर गया, अतः मनुष्यों को अज्ञान को त्यागकर षटतिला एकादशी का उपवास करना चाहिए। इस एकादशी व्रत के करने से व्रती को जन्म-जन्म की निरोगता प्राप्त होती है और सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
पूजन का विधि विधान
- पुष्य नक्षत्र में गोबर, कपास, तिल मिलाकर उपले बनाने चाहिए। यथासंभव इन उपलों से 108 बार हवन करना चाहिए।
- जिस दिन मूल नक्षत्र और एकादशी तिथि हो उस दिन अच्छे पुण्य देने वाले नियमों को ग्रहण करना चाहिए। स्नानादि नित्य कर्म करके भगवान श्रीहरि का पूजन व कीर्तन करना चाहिए।
- एकादशी के दिन उपवास करें तथा रात को जागरण और हवन करें।
- उसके दूसरे दिन धूप, दीप, नैवेद्य से भगवान श्रीहरि की पूजा-अर्चना करें तथा खिचड़ी का भोग लगाए। उस दिन श्रीविष्णु को पेठा, नारियल, सीताफल या सुपारी सहित अर्घ्य अवश्य देना चाहिए, तदुपरांत उनकी स्तुति करनी चाहिए - हे जगदीश्वर! आप निराश्रितों के शरणार्थी हैं। आप संसार में डूबे हुए के तारक है, हम सभी का उद्धार करने वाले हैं। हे कमलनयन! हे जगन्नाथ! हे पुण्डरीकाक्ष! हे मधुसूदन! आप लक्ष्मीजी सहित मेरे इस तुच्छ अर्घ्य को स्वीकार कीजिए।
- इसके पश्चात जल से भरा घड़ा और तिल दान करने चाहिए। मनुष्य जितने तिलों का दान करता है वह उतने ही सहस्र वर्ष स्वर्ग में वास करता है।
षटतिला का अर्थ क्या है ?
जैसा कि षटतिला नाम के अनुसार स्पष्ट होता है कि इस एकादशी में छः प्रकार से तिल का उपयोग किया जाता है ।
"तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी। तिलदाता च भोक्ता च षट्तिला पापनाशिनी।"
श्लोक के अनुसार तिल का उपयोग स्नान करने, हवन करने, उबटन करने,तिल मिश्रित जल को पीने तिल का दान करने एवं भोजन में तिल का उपयोग करने से समस्त पापों का नाश होता है। इस तरह 6 प्रकार से तिल का उपयोग अनंत फल देता हैं एवं भगवान विष्णु की आराधना के लिए विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करने से सुख समृद्धि में वृद्धि होती है।
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