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पिछले दिनों एक मित्र मिले। बुज़ुर्ग हैं। उनकी तीन पुत्रियाँ हैं। तीनों ही ख़ूब पढ़-लिखकर अच्छी नौकरियाँ पा चुकी हैं। तीनों की ही शादियाँ भी हो चुकी हैं। छोटी बेटी की शादी अभी हाल ही में हुई थी।
मित्र ने बतलाया कि उनकी छोटी बेटी बहुत ही ज़हीन है, लेकिन है पूर्णतः शाकाहारी। शादी के बाद जब वह ससुराल गई तो बहुत ख़ुश थी। शादी के एक सप्ताह के बाद जब घर में सामिष भोजन पकने लगा तो उसकी तो हालत ख़राब हो गई।
करे तो क्या करे? सब लोग डिनर पर बैठे। जैसे ही भोजन प्रारंभ हुआ वह भाग कर वाशबेसिन की तरफ गई और उल्टी कर दी।
किसी ने इसे ख़ुशख़बरी समझा तो किसी ने कुछ और। कई तरह की प्रतिक्रियाएँ हुईं। पुत्रवधु जब कुल्ला वग़ैरा करके वापस डाइनिंग टेबल पर लौटी तो ससुर ने पूछा, ‘‘बेटी तबीयत ठीक तो है?’’ पुत्रवधु की आँखों में आँसू आ गए और वह डरते-डरते धीमी सी आवाज़ में बोली, ‘‘पापा मैं नॉनवैज बर्दाश्त नहीं कर सकती।’’
‘‘तब तो तुम्हारा इस घर में रहना मुश्किल होगा,’’ ससुर ने पुत्रवधु की तरफ ध्यान से देखते हुए कहा।
पुत्रवधु को अपने पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती हुई सी मालूम हो रही थी। उसकी सिसकियों में तेज़ी आ गई। पूरा माहौल असहज हो गया।
ससुर ने परिवार के सभी सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘देखो भई न चाहते हुए भी मुझे एक कठोर निर्णय लेना होगा और आज ही अभी लेना होगा। देर करने का कोई फ़ायदा नहीं। ये लड़की जितनी जल्दी मुक्त हो जाए उतना अच्छा है।’’
पुत्रवधु अंदर तक काँप उठी। उसने सभी की ओर कातर दृष्टि से देखा।
ससुर ने अत्यंत गंभीर होकर अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘मुझे बहुत अफ़सोस है कि हमारे परिवार की खानपान की आदतों की वजह से हमारी पुत्रवधु सामंजस्य नहीं बिठा पाएगी। अतः मैंने यह निर्णय लिया है कि “आज से इस घर में सामिष भोजन न तो पकेगा और न बाहर से ही लाया जाएगा।” मेरा एक सुझाव ये भी है कि “आज से हमारा पूरा परिवार पूरी तरह से शाकाहारी बनने का प्रयास करे।’’
सभी ने ताली बजाकर उनकी बातों का समर्थन किया। पुत्रवधु की आँखों में पुनः आँसुओं की झड़ी लग गई लेकिन ये आसूँ बेबसी की पीड़ा के न होकर स्नेह और अपनत्व के आनंद के थे।
दूसरे लोग हमारे लिए नहीं, हम दूसरों के लिए क्या त्याग कर सकते हैं यही महत्त्वपूर्ण व उल्लेखनीय है।
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