भारतीय शिक्षा प्रणाली: शिक्षा का स्वरूप, संदर्भ, और विकास
प्राचीन भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण सभ्यताओं में से एक है। भारत की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत एवं प्रगति का मूल आधार युगीन शिक्षा ही थी। प्राचीन भारत में शिक्षा को अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया जिसका मूल उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास था। भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान तथा विभिन्न उत्तरदायित्वों के विधिवत् निर्वाह के लिये शिक्षा की आवश्यकता को सदा स्वीकार किया गया। वैदिक युग से ही इसे प्रकाश का स्रोत माना गया जो मानव-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित करते हुए उसे सही दिशा-निर्देश देता है। व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास में उसके चारित्रिक विकास तथा आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य ही सर्वप्रमुख था। प्राचीन भारतीय शिक्षा ने अपने देश में ही नहीं, समूचे विश्व में ऐसा उच्चकोटि का आदर्श स्थापित किया, जिससे न केवल व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नै निखरा, अपितु सम्पूर्ण देश और समाज का नाम ऊंचा हुआ। प्राचीन शिक्षा पद्धति ने समूचे संसार में अपना डंका बजाया | इस प्राचीन शिक्षा पद्धति को चार हजार वर्षों से भी अधिक समय तक सुरक्षित रखा गया, उसका प्रचार-प्रसार किया तथा समय समय पर उसमें संशोधन भी किया गया।
ऋग्वैदिककालीन शिक्षा:
ऋग्वैदिक काल में शिक्षा का मुख्य पाठ्यक्रम वैदिक साहित्य का अध्ययन ही था । पवित्र वैदिक ऊचाओं के अतिरिक्त इतिहास, पुराण तथा नाराशसी गाथायें एवं खगोल-विद्या, ज्यामिति, छन्दशास्त्र आदि भी अध्ययन के विषय थे । इस काल में नैतिक आदर्शो पर सबसे अधिक जोर दिया गया है । इस युग की शिक्षा का मूल उद्देश्य ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष प्राप्त करना था । शिक्षा का उद्देश्य सभ्यता और संस्कृति का हस्तान्तरण भी था । इसमें गुरु विद्यार्थियों को मौखिक शिक्षा देते थे । वैदिक मन्त्रों का पाठ ही ज्ञानार्जन का माध्यम था । इससे विद्यार्थी आत्मशिक्षण भी प्राप्त करते थे । चरित्र की शुद्धता के लिए ऋग्वेद काल में विशेष ध्यान दिया जाता था । असत्य, पाप और गलत आचरण को घृणित माना जाता था । भक्ति, धर्म,अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति मुख्य आधार था ।
वैदिककालीन शिक्षा:
वैदिक युग में ब्राह्मण ग्रन्थ लिखे गये तथा ये शिक्षा के विषय वन गये । उपनिषद् तथा सूत्रों के युग में वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण पर बल दिया गया । उपनिषदों में ब्रह्मविद्या, देवविद्या, भूतविद्या, नक्षत्रविद्या, तर्कविद्या तथा सच बोलने को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया था । इसलिये पदपाठ, कर्मपाठ, जटापाठ, घनपाठ आदि विधियां प्रचलित की गयीं । वैदिक साहित्य के अध्ययन को सरल बनाने के निमित्त छ वेदांगों की रचना हुई-शिक्षा, कल्प, व्याकरण निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष ।
स्वाध्याय एवं मनन की इस शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी बहुधा उपनयन संस्कार के बाद गुरु/आचार्य विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश देते थे । इस प्रकार वह द्विज बन जाते थे । आश्रम में प्रवेश के बाद विद्यार्थी को मेखला बांधनी होती थी । बड़े-बड़े बाल रखने पड़ते थे । वह यज्ञ के लिए समिधा बटोरता, भिक्षाटन भी किया करता था । ब्रह्मचारी विद्यार्थी को श्रम व तप करके विद्योपार्जन करना होता था ।
गुरु ज्ञान-विज्ञान जैसे विषय में पारंगत विद्वान् होते थे । गुरु विद्यार्थी को हर प्रकार से सत मार्ग पर लाने का प्रयास करता था; क्योंकि शिष्यों के पापों के लिए गुरु ही उत्तरदायी होता था । वे समाज के पथप्रदर्शक थे । जिनका कहा कोई राजा भी नही टालते थे | शिष्य गुरु को भगवान् मानकर उनकी सेवा-सुश्रुषा करते हुवे सभी आज्ञा का पालन करते थे । इस युग की शिक्षा का उद्देश्य श्रद्धा, मेधा, ज्ञान, धन, आयु तथा अमरत्व की प्राप्ति था ।
सूत्रकालीन शिक्षा :
इस युग में वैदिक साहित्य का अध्ययन कम हो गया तथा उसके स्थान पर अन्यान्य विषयों का समावेश पाठयक्रम में कर लिया गया । दर्शन, धर्मशास्त्र, महाकाव्य (रामायण और महाभारत) । व्याकरण, खगोलविद्या, मूर्तिकला, वैद्यक, पोतनिर्माण कला के क्षेत्र में प्रगति हुई । विभिन्न व्यवसायों तथा शिल्पों की भी शिक्षा का प्रबन्ध किया गया । धार्मिक तथा लौकिक विषयों की शिक्षा में समन्वय स्थापित किया गया ।
सूत्र कालीन शिक्षा के पाठ्यक्रम में चार वेद, छ: वेदांग, 14 विधायें, 18 शिल्प, 64 कलायें आदि सम्मिलित थे । 14 विधाओं से तात्पर्य चार वेद, 6 वेदांग, धर्मशास्त्र, पुराण, मीमांसा तथा तर्क से है । इस युग के स्नातक वेदों तथा 18 शिल्पों में निपुण होते थे ।
अट्ठारह शिल्प निम्नलिखित थे:
(1) गायन, (2) वादन, (3) चित्रकला, (4) गणना,(5) नृत्य, (6) गणना, (7) यन्त्र, (8) मूर्तिकला, (9) कृषि, (10) पशुपालन, (11) वाणिज्य, (12) चिकित्सा, (13) विधि, (14) प्रशासनिक प्रशिक्षण, (15) धनुर्विद्या तथा शिक्षा, (16) जादूगर, (17) सर्पविद्या तथा विष दूर करने की विधि, (18) छिपे हुए धन के पता लगाने की विधि ।
बौद्धकालीन शिक्षा:
बौद्धिक काल में शिक्षा मठों, विहारों में दी जाती थी | इस पद्धति में दी जाने वाली बौद्धकालीन शिक्षा का उद्देश्य चारित्रिक गुणों का विकास, ज्योतिष ज्ञान , तर्क विज्ञान, दार्शनिक शास्त्र था । बौद्धकाल में तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, वल्लभी, श्रावस्ती, ओदलपुरी, कालिन्दी आदि कई विश्वविद्यालय विश्वप्रसिद्ध थे । यहां 118 विषय पढाये जाते थे । धर्म, दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष आदि की शिक्षा कुशल अध्यापको द्वारा प्रदान की जाती थी। इस पद्धति में विद्यार्थीयो को भौतिक उलझनों से दूर शान्त एवं प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा प्राप्त करते थे । इन ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में दूर देशों के भी विद्यार्थी अध्ययन हेतु आते थे।
महिला शिक्षा :
प्राचीन भारत में महिलाओं के लिए शिक्षा का भी काफी महत्वपूर्ण स्थान था। स्त्रियों को लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शिक्षाएँ दी जाती थी। सहशिक्षा को बुरा नहीं समझा जाता था। गोभिल गृहसूत्र में कहा गया है कि अशिक्षित पत्नी यज्ञ करने में समर्थ नहीं होती थी।
वैदिक युग में स्त्रियाँ यज्ञोपवीत घारण कर वेदाध्ययन एवं सायं- प्रात होम आदि कर्म करती थी। वेदों और वेदांगों का ज्ञान महिलाओं को भी दिया जाता था, लेकिन वे धार्मिक गीतों और अनुष्ठानों के लिए आवश्यक कविताओं तक ही सीमित थे। शिक्षित महिलाओं को दो वर्गों में विभाजित किया गया था - सयोदोद्वहस, जिन्होंने अपनी शादी तक सिर्फ अपनी शिक्षा का पालन किया, और ब्रह्मवादिनी, जिन्होंने कभी शादी नहीं की और जीवन भर पढ़ाई जारी रखी।
महावीर और गौतम बुद्ध ने संघ मे नारियों के प्रवेश की अनुमति दी थी, ये धर्म और दर्शन के मनन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती थीं। जैन और बौद्व सहित्य से पता चलता है कि कुछ भिक्षुणियों ने साहित्य के विकास और शिक्षा में अपूर्व योगदान दिया जिसमें अशोक की पुत्री संघमित्रा प्रमुख थी। यहाँ बौद्ध आगमों की महान शिक्षिकाओं के रूप में उनकी बड़ी ख्याति थी। जैन साहित्य से जयंती नामक महिला का पता चलता है जो धर्म और दर्शन के ज्ञान की प्यास में अविवाहित रही और अंत में भिक्षुणी हो गई।
महिलाओं को शिक्षा के साथ घर के कार्यो के अलावा सिलाई, बुनाई, कढ़ाई के अलावा नृत्य और संगीत में प्रशिक्षित किया गया था। लड़कियों को भी उपनयन समारोह में शामिल किया गया था। कुछ उल्लेखनीय वैदिक और उपनिषद महिला विद्वानों में अपाला, इंद्राणी, घोषा, लोपामुद्रा, गार्गी और मैत्रेयी थीं।
यह निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि प्राचीनकालीन शिक्षा व्यवस्था देश में ही नहीं, समूचे विश्व में भी प्रसिद्ध थी । चरित्र निर्माण, आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ व्यक्ति के सर्वागीण विकास के उद्देश्य पर आधारित इस शिक्षा प्रणाली की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी ।