Bhartiya Parmapara

भक्ति, शक्ति और सौंदर्य की त्रिवेणी : कामाख्या देवालय

लगभग २० वर्षों से मेरे मन में कामाख्या देवी के दर्शन की उत्कट लालसा पल्लवित हो रही थी, इसी लालसा ने ही मुझे आईआरसीटीसी के आसाम - मेघालय टूर प्रोग्राम में आने की प्रेरणा दी और बिना परिवार के इतनी दूर आने का साहस और शक्ति भी। 
हमारे टूर प्रोग्राम में सबसे पहला दिन ही कामाख्या देवी के दर्शन से प्रारंभ था। मैं बहुत ही उत्साहित थी। आज मेरी वर्षों के साध पूरी होने का दिन था। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हम ने सुबह ५.४५ बजे दर्शन हेतु प्रस्थान किया। 

मंदिर होटल से 15 मिनट का रास्ता था। रास्ते में ब्रह्मपुत्र नदी के तेजस्वी प्रवाह के दर्शन किए पर मेरे मन में पूज्य भाव नहीं जागे, जैसे नर्मदा,गंगा या कांवेरी नदी के दर्शन पर जागते हैं। शायद बचपन से ब्रह्मपुत्र नदी की बाढ़ और तबाही के समाचारों ने इसकी क्रोधी और विनाशक छवि निर्मित कर दी थी, जो भी कारण हो, ऐसा होना नहीं चाहिए, सभी नदियाँ पूज्य हैं। मैंने अपनी कमी/दोष अनुभव करते हुए नदी माँ से क्षमा मांँगी। 

जिस तरह सूर्य प्रकाश और ऊष्मा देता है, संवेदनाएँ रागात्मक अनुभवों को जन्म देती हैं, पुष्प वातावरण को सुवासित कर देते हैं, उसी तरह माता रानी के दर्शन की उत्कट अभिलाषा मेरे मन को सात्विक भावों से भर कर ऊर्जावान बना रही थी। मंदिर पहुँचकर वी. आई. पी. टिकट की लाइन में खड़े रहे। मैं बीच-बीच में घूम कर मंदिर परिसर और श्रद्धालु - पारावार देख रही थी। लोग कह रहे थे कि वे रात एक बजे से लाइन में खड़े हैं। पूरे भारत से आए हुए भक्तजन अनेकता में एकता की अनुपम झाँकी रच रहे थे। इन श्रद्धालुओं की कोई जाति नहीं है। भक्ति के आवेग में लोग भूल गए हैं - अमीर गरीब का भेद, भूल गए हैं अपनी जाति- गोत्र! उन्हें बस इतना याद है कि आज वे माता रानी के दरबार में हैं, उनका आशीर्वाद प्राप्त कर कृतार्थ हो जाएंगे। मुझे यहाँ हिन्दुओं के साथ ही मुस्लिम, सिक्ख, इसाई सभी धर्मों के अनुयायी समान श्रद्धा भाव से आल्हादित दिखाई दे रहे थे। 

मैं सोच रही थी कि कोई नेता, संत, या अन्य कोई विचारधारा इतनी भीड़ इकट्ठा नहीं कर सकती, ऐसी अनुपम श्रद्धा, विश्वास और उत्साह पैदा नहीं कर सकती। एक आम सभा में लोगों को जुटाने में आयोजकों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। यहाँ तो रोज ही इतने भक्त हर समय जुटे रहते हैं। सब को जोड़ देने की ऐसी अद्भुत शक्ति केवल धर्म में है। हमारी यह आस्था अडिग है। कुछ धर्म ग्रंथों को जला कर इस आस्था को आहत नहीं किया जा सकता है। सनातन धर्म से स्पंदित यह आस्था और श्रद्धा अजर अमर है, यही भारतीय संस्कृति और जीवन की संजीवनी है। 

विचार प्रवाह के बीच भी ठंड अपनी रंगदारी दिखा रही थी। बादल भी मंदिर के शिखर का स्पर्श करते हुए पुलकित हो, हमें अपने शीतल स्पर्श से रोमांचित कर रहे थे। पूरे परिवेश ने धुंधलके का दुशाला ओढ़ रखा था। मैं ठंड कम करने के लिए सामने परिसर में रखी कुर्सी पर बैठ गई। मेरे पास की कुर्सियों पर एक अधेड़-युगल बैठा था। उनके कुछ वस्त्र गीले-से होने से वे शीत से काँप रहे थे। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ब्रह्मपुत्र नदी के टापू पर बने महा भैरव उमानंद के दर्शन और स्नान करके यहाँ दर्शन करने आए हैं। ऐसा माना जाता है कि भैरव उमानंद के दर्शन के बाद ही कामाख्या देवी के दर्शन करना चाहिए। मेरी जिज्ञासा को समझकर उन्होंने कहा कि उमानंद एक शैलद्वीप है जिसे मध्य पर्वत भी कहते हैं, यहाँ तपस्या रत शिव को कामदेव ने अपने बाण से आहत किया था और क्रुद्ध शिव ने यहीं कामदेव को भस्म किया था। बाद में माता सती के इस महाशक्ति पीठ पर कामदेव को नव जीवन मिला था, इसीलिए इसे पहले ‘कामरूप’ के नाम से जाना जाता था। 

नील-शैल-मालाओं पर स्थित माँ भगवती कामाख्या का यह दिव्य मंदिर 51 शक्तिपीठों में मुख्य है। मैंने अपने प्राध्यापक साथी डाॅ. विजय शर्मा जी से इसकी बड़ी महिमा सुनी है - वे प्रतिवर्ष दो बार नवरात्र में यहाँ आते थे, और कहते थे कि कामाख्या तांत्रिकों का पवित्र सिद्धपीठ है। माता कामाख्‍या तांत्रिकों की देवी हैं। इसीलिए यह शक्तिपीठ महान शक्ति-साधना का गढ़ है। उन्होंने हमें यहाँ के कई तंत्र-सिद्ध, चमत्कारिक और सरस किस्से सुनाकर मन में दर्शन की अभिलाषा जगाई थी। आज जब वे इस लोक में नहीं हैं, मुझे अनायास ही यहाँ दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

मुझे आज डॉ. विजय शर्मा जी के द्वारा सुनाई गई एक दन्तकथा का स्मरण हो रहा है - 
एक समय अहंकार के मद से उन्मत्त असुर राज नरकासुर एक दिन मांँ भगवती कामाख्या को अपने पत्नी रूप में पाने का हठ कर बैठा था। मांँ भगवती ने उस असुर की मृत्यु को सामने देखते हुए उसे प्रस्ताव दिया कि यदि तुम आज रात ही नील पर्वत के चारों तरफ पत्थरों का चार स्तरीय पथ निर्मित कर दोगे और कामाख्या मंदिर के पास एक विश्रामगृह बना दो तो मैं निश्चित ही तुम्हारी पत्नी बनने के लिए तैयार रहूंँगी किंतु यदि तुम ऐसा न कर सके तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। देवी महिमा और शक्ति से अनभिज्ञ उस असुर ने अपनी शक्ति के मद में रात भर में नीलांचल के चारों ओर पत्थरों का निर्दिष्ट रास्ता बना दिया और माता के मंदिर के निकट विश्राम भवन बना रहा था, तभी प्रभात होने का संदेश देते हुए मुर्गे ने बांग दे दी। क्रोधित नरकासुर ने मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे तट पर जाकर उसका वध कर दिया। यह स्थान आज भी 'कुक्टाचकि' के रूप में जाना जाता है बाद में श्री विष्णु ने नरकासुर का वध कर दिया था। 
 इस कथा ने मुझे यह विचार दिया कि देवी नरकासुर को सीधे दण्ड भी दे सकती थीं, पर वे उसकी शक्ति को समझती थी और उसका जनकल्याणकारी कार्य में उपयोग करने का संदेश देना उद्देश्य रहा होगा। नरकासुर के अतिरिक्त कोई अन्य भक्तों के लिए मार्ग बनाने का यह दुष्कर कार्य नहीं कर सकता था। इसीलिए उन्होंने उससे यह कार्य करवा कर उसे असुर योनी से मुक्ति प्रदान की होगी। 

हम मंदिर के जिस भाग में टिकट के लिए पंक्ति में खड़े थे उसके मध्य में देवी का एक छोटा मंदिर है। जिसे भक्त दीपक और फूलों से सजा रहे थे, पूजन कर रहे थे। मैंने जिज्ञासावश एक महिला से पूछ ही लिया कि यहाँ पूजा क्यों होती है? उसने बताया कि वह स्थानीय निवासी है, रोज अंदर जाने की अपेक्षा यहीं पूजन करती है, सभी ऐसा ही मानते हैं कि यहाँ की गई पूजा माता स्वीकार करती हैं। हमको यही सुविधाजनक भी है। 
सामने लंबा परिसर छोटे छोटे भागों में बंँटा था। इन में मुर्गे, बकरे आदि रखे हुए थे। यहाँ मुर्गे भी विशिष्ट प्रजाति के, बड़े और स्वस्थ नजर आ रहे थे। बकरे याक की तरह झबरे, नाटे और मोटे थे। उसके आगे पास ही एक स्वच्छ कक्ष में शिला रखी है। मैंने वहाँ जाकर पूछा कि यह क्या है, तो बताया गया कि यहाँ देवी को भोग लगता है। मैंने पूछा क्या बलि चढ़ती है? किसकी? उन्होंने बताया यहांँ पर पशुओं की बलि दी जाती है। लेकिन यहांँ मादा पशुओं की बलि नहीं दी जाती है। क्योंकि यह क्षेत्र कौमारी को पूजता है। यहाँ किसी भी जाति, वर्ग या किसी भी विभेद को नहीं माना जाता है, सभी कुमारियों को समान रूप से सम्मान दिया जाता है - मुझे यह जानकर बहुत ही प्रसन्नता भी हुई, किन्तु मेरा सनातनी मन बली देने की प्रथा से हमेशा की तरह दुखी हुआ। मांसाहार को सही सिद्ध करने के लिए ही बलि-प्रथा शुरू हुई होगी ऐसी मेरी अल्प बुद्धि कहती है। हालांकि यह प्रथा अब अत्यंत संकुचित हो चली है। मेरा मानना है कि केवल सांकेतिक बलि दी जानी चाहिए। कई क्षेत्रों में भूरा कद्दू काटकर भी देवी को प्रसन्न किया जाता है। मेरा मन कहता है कि देवी की प्रसन्नता तो सदैव शुभ भावों से होती है। हमें यहाँ अपने अहंकार, स्वार्थ और अशुभ भावों की बलि देना चाहिए। 

यहाँ का परिसर स्वच्छ नहीं था। शायद रात देर तक भक्तों की उपस्थिति ही इसका कारण हो। थोड़ी देर बाद सफाई कर्मी आए और सफाई होने लगी। ठीक सात बजे टिकट खिड़की खुली। सभी ने शांति से टिकट लिया। मंदिर में दर्शन की अति उत्तम व्यवस्था है - हमें कहीं भी पंक्ति में खड़ा नहीं रहना पड़ा।  एक के बाद एक स्वच्छ सुविधामय बड़े कक्ष में पंक्तिबद्ध कुर्सियों पर बैठकर अपने अवसर की हम प्रतीक्षा करते रहे। यहाँ भारत के अन्य मंदिरों (महाकाल उज्जैन, श्रीनाथद्वारा या काली माता मंदिर कोलकाता) की तरह पंडितों का हस्तक्षेप नहीं अनुभव हुआ। हमारे मंदिर पहुँचते ही एक दो पंडितों ने पूजा करवाने के लिए पूछा अवश्य था, पर हमारे मना करने पर वे सहर्ष लौट गए। दर्शन जल्दी कराने के नाम पर ठगी, पूजा करवाने के लिए अतिरिक्त आग्रह या दक्षिणा के लिए कोई माँग नहीं दिखाई देना एक सुखद अनुभव रहा। 

लगभग डेढ़ घंटे की प्रतीक्षा के बाद चार द्वार पार करके हम बिना किसी धक्का-मुक्की के माता के भवन में पहुँचे। मैं निरंतर माता के महामंत्र - 
 "कामाख्ये कामसम्पन्ने कामेश्वरि हरप्रिये। 
कामनां देहि मे नित्यं कामेश्वरि नमोऽस्तु ते"।। 

का जाप करते हुए परम आनन्द का अनुभव कर रही थी। जल में स्थित महासती की उपस्थिति का अनुभव मुझे रोमांचित कर रहा था। शरीर भावावेगों से कंपित था। मन निर्विकार। शरीर का रोम-रोम नेत्र बनकर अपलक शक्ति स्थल के दर्शन कर रहा था। पुष्प आच्छादित जल कुंड के समक्ष नीचे बैठ कर पावन जल का स्पर्श किया, माथा टेका। मन भावविभोर। कोई इच्छा नहीं जागी, जिसके पूर्ण होने की कामना होती। माँ की कृपा का दिव्य अनुभव निरंतर किया और बाहर आते हुए माता की रसोई के सामने प्रणाम करने के बाद लगा कि ऊर्जा तन-मन में समा गई। मैं आश्चर्यचकित थी कि  कैसे मैं पवित्र कुंड के समक्ष घुटनों के बल बैठ गई, झुककर जलस्थ माता को प्रणाम किया और बिना सहारे के उठ गई ! पैरों में कहीं कोई कष्ट नहीं! यह भक्ति आवेगों का चमत्कार और देवी अनुकम्पा ही थी, जो अभी लिखते हुए भी मुझे रोमांचित कर रही है। 
     

       

 
मैंने देखा कि यह मंदिर तीन भागों में बना हुआ है। इसका पहला हिस्सा सबसे बड़ा है, जहांँ पर हर भक्त को जाने नहीं दिया जाता है। दूसरे हिस्से में माता के दर्शन होते हैं, जहांँ एक पत्थर से हर समय पानी निकलता है। कहते हैं कि महीने में एक बार इस पत्थर से खून की धारा निकलती है। ऐसा क्यों और कैसे होता है, यह आज तक किसी को ज्ञात नहीं है। मान्यता है कि तीन दिन देवी रजस्वला रहती हैं। 

पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवी सती ने अपने पिता द्वारा महादेव को अपमानित किए जाने से  क्रुद्ध होकर यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी, तब विरहाकुल महादेव माता सती का जला हुआ शरीर लेकर पूरे संसार में भ्रमण कर रहे थे। उनका बढ़ता हुआ क्रोध और मोह प्रकृति के लिए संकट बनता जा रहा था। तब जगत के सुरक्षा भाव से प्रेरित श्रीहरि ने अपने सुदर्शन चक्र से माता के पार्थिव शरीर के अंग काटना प्रारंभ किया। उस समय माता के पवित्र, दिव्य अंग और उनके आभूषण पृथ्वी पर जिन स्थानों पर गिरे, उन स्थानों पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई। कुल 52 शक्तिपीठ हैं। आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित अष्टादश महाशक्तिपीठ स्तोत्र में उल्लेख है कि कामाख्या में भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है। देश भर में अनेकों सिद्ध स्थान है जहाँ माता सूक्ष्म स्वरूप में निवास करती है किन्तु माता कामाख्या का यह मंदिर प्रमुख महाशक्ति पीठों में मान्य है। सर्प वाहना कामाख्या देवी के दर्शन मात्र से भक्तों की सभी मनोकामनाएंँ पूर्ण हो जाती हैं, इसीलिए इनका नाम कामाख्या है। 

हरसिद्धि देवी शक्तिपीठ उज्जैन (जहांँ माता सती की कोहनी गिरी थी), वृंदावन में कात्यायनी शक्तिपीठ (जहाँ माता के बाल के गुच्छ और चूड़ामणि गिरे थे), गुजरात में माता अम्बाजी का मंदिर (जहांँ माता का हृदय गिरा था), माता शिवानी रामगिरी चित्रकूट (जहाँ माता का दायाँ स्तन गिरा था), शारदा देवी मैहर (जहाँ माँ का हार गिरा था), शुचि शक्तिपीठ कन्या कुमारी (जहाँ मैया की ऊपरी दाढ़ गिरी थी), नैना देवी (जहांँ माता के नयन गिरे थे), स्तानुमालयन मंदिर, सुचिन्द्रम् (जहाँ देवी के दाँत गिरे थे) और कालीपीठ कलकत्ता (जहाँ माता का पैर का अंगूठा गिरा था) आदि शक्तिपीठों के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे मिला है और इन शक्ति पीठों से ऊर्जा भी मिली है, पर आज मुझे यहाँ जो दिव्य अनुभव हुआ, वह शब्दातीत है। 

मैं उस क्षण को प्रणाम करती हूँ, जब मैंने इस यात्रा का सुनिश्चय किया, मैंने पहली बार परिवार के प्रत्यक्ष साथ के बिना यात्रा पर जाने का साहसिक निर्णय लिया। निश्चित ही देवी प्रेरणा रही है, माता की कृपा के बिना ऐसा सुयोग कब बनता है। 

इस मंदिर के विषय में यह भी लोक विश्वास है, कि जो जीवन में तीन बार यहाँ दर्शन कर लेते हैं, उन्हें सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है। ऐसी मान्यता भी है कि माता की योनि नीचे गिरकर एक विग्रह में परिवर्तित हो गयी थी, जो आज भी मंदिर में विराजमान है और जिससे आज भी माता की वह प्रतिमा रजस्वला होती है। माता के रजस्वला काल में आज भी भगवती के मंदिर के कपाट स्वत: ही बंद हो जाते हैं,  उन तीन दिनों समस्त गुवाहाटी में न तो कोई मंगल कार्य होता है, न ही कोई मंदिर खुलता है। तत्पश्चात् कामाख्या देवी की वैदिक अनुष्ठान के साथ साधना करके मंदिर को पुनः दर्शनार्थ खोल दिया जाता है। यह मंदिर अनुपम तथा अपने आप में विशिष्ट है। सम्पूर्ण जगत में ऐसा चमत्कारिक मंदिर और पूजा पद्धति अन्यत्र नहीं सुनी गई है।   

भगवती महामाया की प्रार्थना करते हुए कहा भी गया है - 
योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा। 
रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥ 
शरणागतदिनार्त परित्राण परायणे । 
सर्वस्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोस्तु ते। 

हमें होटल के मैनेजर ने बताया था कि यहांँ पर प्रत्येक वर्ष आषाढ़ में 22 से 26 जून तक अम्बुवाची मेला लगता है। ब्रह्मपुत्र नदी का पानी इन दिनों लाल हो जाता है। इस समय कोई भी नदी में स्नान नहीं करता जमीन पर मिट्टी खोदना या बीज बोना भी अच्छा नहीं माना जाता है। साथ ही यहांँ इन दिनों में शंख और घंटी भी नहीं बजाई जाती है। 22 से 26 जून मंदिर बंद रहता है। देवी के भक्त इन दिनों में अन्न, फल और कंद का त्याग करके ब्रह्मचर्य व्रत रखते हैं। इन दिनों यहाँ सारे भारत के तांत्रिकों, मांत्रिकों और अघोरियों का जमावड़ा रहता है। वे यहांँ साधना के उच्च स्तर की प्राप्ति, तंत्र सिद्धियाँ सिद्ध करने के लिए तथा मंत्र-शक्तियों के पुरश्चरण अनुष्ठान हेतु साधना करते हैं। उस समय सामान्य व्यक्तियों के लिए वातावरण रहस्यमय और कुछ हद तक वीभत्स भी हो जाता है। महिला तांत्रिकों को भी यहाँ शव साधना करते हुए देखा जा सकता है। इसके बाद दर्शन के लिए यहांँ भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। 

सूचना पट्ट से ज्ञात होता है कि इस मंदिर का निर्माण 8वीं और 9वीं शताब्दी के बीच हुआ था किंतु हुसैन शाह ने आक्रमण कर मंदिर को नष्ट कर दिया। 1500 ई. में राजा विश्वसिंह ने मंदिर को पूजा स्थल के रूप में पुनः स्थापित किया। इसके बाद सन् 1565 में राजा के बेटे ने इस मंदिर का पुन: निर्माण कराया। 
      
 

 

     

       

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