वास्तु साहित्य में मंदिर वास्तु, आवासीय वास्तु, व्यवसायिक वास्तु, वास्तु सम्मत नगर आदि सभी स्थलों का वास्तु होता है।
वास्तुशास्त्र के प्रयोग के लिए शास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों और मूल तत्व को समझना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र हमारे आस-पास की विभिन्न ऊर्जाओं को पहचान कर हमारे आंतरिक एवं बाह्य वातावरण के बीच संतुलन स्थापित करने में सहायक होता है।
वास्तु शास्त्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है। इसमें सूर्य की किरणों, पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र एवं भौगोलिक परिस्थितियों का ध्यान रख कर ही कोई भी निर्माण कार्य ऐसे किया जाता है कि विभिन्न दुष्प्रभाव उत्पन्न करने वाली शक्तियों का प्रभाव ना पड़े । गृह वास्तु का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चारों लक्ष्यों को प्राप्त करना है, जबकि कार्य स्थल वास्तु का मुख्य उद्देश्य धन कमाना है।
सभी स्थलों के वास्तु का उद्देश्य अलग-अलग होता हैं, लेकिन सभी जगह पूजा कक्ष का वास्तु बहुत महत्वपूर्ण होता है, इस कक्ष का उद्देश्य सभी जगह एक ही होता है, भगवान का आर्शीवाद प्राप्त करना। कभी कभी पूजा पाठ के बावजूद भी जीवन में दिक्कतें कम नहीं होती हैं, हम बहुत पूजा पाठ करते हैं, दान धर्म करते हैं, लेकिन अगर हमको परेशानी आती है तो हमारे मन में ये विचार आता है, कि हम इतना सब करते हैं फिर ये परेशानी क्यों आ रही है । इसका कारण अज्ञानवश पूजा स्थान का चयन गलत दिशा में होना या वहां वास्तु दोष होना होता है ।
पूजा स्थल किसी भी व्यक्ति के मन, आत्मा व संस्कार का परिमार्जन करता हैं, विचारों को शुद्ध करता हैं, तथा आत्मा को दिव्यता से भर देता हैं।
वैसे तो जहां भगवान का वास होता हैं, वहां की ऊर्जा बहुत अच्छी होती है लेकिन उस ऊर्जा को ओर बढ़ाने के लिए वास्तु के अनुरूप अगर उस कक्ष का निर्माण किया जाए तो ऊर्जा बढ़ने से सकारात्मक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।
ध्यान रखने योग्य वास्तु सिद्धांत ---
* आवासीय या व्यवसायिक स्थल में पूजन का स्थान प्लाट या भवन के पूर्व दिशा, उत्तर दिशा या ईशान कोण में होना चाहिए। इनमें से ईशान कोण सर्वश्रेष्ठ स्थान माना गया है, यह स्थान पूजा और ध्यान लगाने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान है । ईश शब्द का अर्थ है भगवान और ईशान अर्थात भगवान का वास, ईशान कोण पर देव गुरु बृहस्पति का स्वामित्व है ,और यह स्थान भगवान शिव का स्थान माना गया है । भगवान शिव का एक नाम ईशान भी हैं । देव गुरु बृहस्पति और भगवान शिव दोनों ही आध्यात्मिकता के कारक होते हैं। अतः यह स्थान व्यक्तिगत एवं पारिवारिक सदस्यों की पूजा-अर्चना के लिए सर्वश्रेष्ठ है ।
* पूजन करते समय मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए ,इसलिए भगवान का आसन पूर्व दिशा की दीवार या उत्तर दिशा की दीवार पर बनाया जाता है, क्योंकि धन प्राप्ति के लिए उत्तर दिशा महत्वपूर्ण है और ज्ञान प्राप्ति के लिए पूर्व दिशा महत्वपूर्ण होती है। अगर किसी व्यावसायिक संस्थान अथवा सोसायटी आदि में मंदिर अथवा धार्मिक स्थल की व्यवस्था ईशान कोण में नहीं हो सकती है तो पूजा स्थल का निर्माण ब्रह्म स्थान में भी कर सकते हैं, और वहां बाहर की तरफ भी मंदिर बनाया जा सकता है (सोसाइटी के बाहर की खाली जमीन के वास्तु के अनुसार)। घर में ब्रह्म स्थान पर मंदिर कभी नहीं बनाया जाता है। व्यक्तिगत पूजन रोज करने का स्थल ईशान कोण में सर्वोत्तम होता है।
* मंदिर में मूर्तियों की ऊंचाई एक बालिश्त से ज्यादा ना हो। भगवान का आसन फर्श से 3 फीट ऊंचाई पर बनाना चाहिए, क्योंकि घर में बुर्जुग सदस्य जो नीचे नहीं बैठ सकते हैं, कुर्सी पर बैठ कर पूजा करते हैं तो ऐसी परिस्थिति में भगवान का आसन उनसे नीचे हो जाएगा जो कि सही नहीं है।
* पूजा घर के पास या ईशान कोण में झाड़ू एवं कूड़ेदान नहीं रखना चाहिए। अगर संभव हो तो उस कक्ष का झाड़ू पोंछा अलग ही रखें।
* पूजा स्थल के पास एवं उसके ऊपर नीचे भी शौचालय नहीं होना चाहिए।
* पूजन का कक्ष सीढ़ी के नीचे नहीं होना चाहिए।
* पूजा कक्ष का फर्श संगमरमर का लेकिन सफेद या हल्के पीले रंग का होना चाहिए।
* पूजा कक्ष में खिड़कियां उत्तर और पूर्व दिशा में होना चाहिए।
* पूजा स्थल में भगवान की मूर्ति के साथ पूर्वजों की तस्वीर नहीं रखना चाहिए।
* आज कल लकड़ी या किसी अन्य धातु के मंदिरों का चलन बढ़ गया है, लेकिन उन मंदिरों में नीचे दराज बना कर सामान भर दिया जाता है, यह गलत है, क्योंकि देवताओं का आसन ठोस धरातल पर स्थापित होना चाहिए । उनके मंदिर के नीचे या ऊपर की तरफ कोई भी ऐसा खोखला स्थान नहीं होना चाहिए जहां सामान रखा जा सके।
* मंदिर की छत गुंबद वाली नहीं होना चाहिए, चाहे घर हो या व्यावसायिक स्थल हो। पिरामिड नुमा छत पूजा स्थल के लिए उत्तम है। क्योंकि पिरामिड के नीचे ऊर्जा तीन गुना होती है अतः अधिक फल देती है, वहां पर समय व्यतीत करने वाले विशेष स्फूर्ति और आनंद प्राप्त करते हैं।
* घर में अगर ईशान कोण में पूजन कक्ष बनाने की व्यवस्था ना हो, तो रसोई घर या अन्य स्थान पर मंदिर बना सकते हैं। शयन कक्ष में पूजा स्थल बनाना निषिद्ध है, लेकिन अगर इस कक्ष में पूजा स्थल बनाना ही पड़े तो एक पर्दा या लकड़ी के पार्टीशन अथवा लकड़ी के दो पल्लों के द्वारा मंदिर को अलग रखना चाहिए। पूजा स्थल अगर किसी अन्य कक्ष में बनाया जा रहा है, तो ध्यान रखें कि पूजास्थल उस कमरे के ईशान कोण में हो। रसोई घर में अगर पूजा स्थल बनाया जा रहा है, तो भगवान का आसन गैस रखने के प्लेटफार्म से ऊंचा होना चाहिए। दक्षिण दिशा और नैऋत्य दिशा में कभी पूजन स्थल नहीं बनाना चाहिए।
* पूजा कक्ष में यथासंभव कम से कम मूर्तियां अथवा भगवान की तस्वीरें रखना चाहिए। पूजा घर में एक भगवान की एक ही मूर्ति अथवा तस्वीर रखें। मूर्ति हमेशा ठोस होना चाहिए।
* पूजा घर में एक मूर्ति अष्टधातु की अवश्य होना चाहिए। चांदी, पीतल, तांबा आदि धातु की मूर्ति भी रख सकते हैं। लोहे और प्लास्टिक की मूर्ति कदापि ना रखें। मूर्ति हमेशा बैठी हुई अवस्था में होना चाहिए, खड़ी हुई मूर्ति कभी भी नहीं रखें।
* देवी, देवताओं की खंडित मूर्तियां या टूटी-फूटी तस्वीरें भी ना रखें।
* पूजन में उपयोग किए जाने वाले बर्तन स्टील, लोहे और प्लास्टिक के नहीं होना चाहिए।
* पूजा घर में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य भगवान का मुख पूर्व दिशा अथवा पश्चिम दिशा की ओर होना चाहिए। हनुमान जी का मुख नैऋत्य दिशा में होना चाहिए । दुर्गा जी का मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए । यह अवश्य ध्यान रखें कि सभी भगवान के मुख एक दूसरे के सामने की ओर ना हो। गणेश जी की स्थापना मंदिर में पूर्व, उत्तर या ईशान कोण में होना चाहिए । घर के दरवाज़े की तरफ देखते हुए कभी भी गणेश जी की मूर्ति या तस्वीर नहीं रखें । दक्षिण दिशा की ओर मुख करके गणेश जी की मूर्ति या चित्र रख सकते हैं।
* पूजा कक्ष में मूर्ति का मुख कभी भी प्रवेश द्वार के सम्मुख नहीं होना चाहिए।
* पूजा घर में यदि हवनादि करना हो, तो कुण्ड कक्ष के आग्नेय कोण में रखें।
* मंदिर अगर लकड़ी का बना हुआ है, तो उसमें माईका का उपयोग ना करें । मंदिर का द्वार उत्तम लकड़ी के दो पल्लों वाला होना चाहिए।
* मंदिर में दहलीज अवश्य होनी चाहिए।
* पूजन कक्ष हमेशा साफ सुथरा होना चाहिए।
* रात को सोने के पूर्व भगवान के कक्ष में पर्दा डाल दें या पट अवश्य बंद कर दे।
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