हिंदू धर्म में तुलसी का बहुत अधिक महत्व है। पूजा, यज्ञ, हवन, शादी, गृह प्रवेश और मुंडन जैसे सारे शुभ कार्य तुलसी के बिना अधूरे माने जाते है। इसके अलावा तुलसी को लेकर कुछ मान्यताएं भी हैं, जैसे भगवान गणेश को कभी भी तुलसी नहीं चढ़ाई जाती है।
तुलसी कौन थी?
तुलसी गौ लोक (भगवान श्री कृष्ण का लोक) में 1 गोपी का नाम है, जो भगवान कृष्ण की सच्चे मन से पूजा अर्चना करती थी।
भगवान कृष्ण के मित्र सुदामा भी गौ लोक में ही रहते है, जो तुलसी से विवाह करना चाहते है पर तुलसी के रोम रोम में तो सिर्फ भगवान ही बसे है। एक बार भगवान की लीला से अभिभूत हो कर सुदामा तुलसी की प्रशंसा कर रहे थे और तुलसी को भी सुनने में अच्छा लग रहा था तभी राधा - रानी ने दोनों से पूछा की प्रभु कहाँ है ? पर दोनों आपने वार्तालाप में ही लीन थे तो उनको कुछ सुनाई नहीं दिया इससे राधा जी को क्रोध आ गया और दोनों को श्राप दिया कि सुदामा ने असुर जैसा बर्ताव किया है तो उसको असुर कुल में जन्म लेना होगा और तुलसी को भी धरती पर जन्म लेना होगा। दोनों को एक दूसरे से बिछुड़ने का अत्यंत दुःख था पर यह सब तो प्रभु की लीला ही है, जो श्राप को भी वरदान बदल देती है। इसी लीला में भगवान गणेश का भी महत्वपूर्ण भाग है।
श्राप के कारण सुदामा ने असुर कुल में जन्म लिया और उनका नाम शंखचूड़ हुवा और तुलसी का जन्म एक राजा के यहाँ हुवा जिसमे उनका नाम तुलसी ही था। दोनों के परिवार वाले भगवान विष्णु के परम भक्त थे और उनकी ही कृपा से उनके यहाँ संतान की उत्पति हुवी थी। तुलसी स्वभाव से अत्यंत चंचल थी और बचपन से ही भगवान नारायण की पत्नी बनने के लिए उत्सुक थी, और उनकी आराधना किया करती।
उधर शंखचूड़ बचपन से अत्यधिक बलवान हुवे और आसुरी शक्ति को और अधिक ताकतवर बनाने के लिए उनके पिताजी ने ब्रह्मा जी की तपस्या करने को कहाँ। शंकचूड़ युवास्था में पुष्कर राज तीर्थ के लिए रवाना हुवे और घोर तपस्या करनी शुरू कर दी।
तुलसी भी युवास्था में आयी तब उनके पिताजी ने उनको अपने मन को स्थिर करने और नारायण की तपस्या के लिए गंगा घाट भेज दिया। तुलसी ने गंगा किनारे अपनी तपस्या शुरू करी। तुलसी का चंचल मन बहुत भटक रहा था उनको हर जगह भगवान कृष्ण ही दिखाई दे रहे थे। वही गंगा के घाट पर भगवान गणेश भी तपस्या में लीन थे। तुलसी के चंचल मनोस्तिथि के कारण उसे भगवान गणेश में भी प्रभु कृष्ण ही नजर आने लगे और अपनी तपस्या को पूरा होता देख वह गणेश जी के पास जाके कृष्ण की वंदना करते हुवे विवाह का प्रस्ताव दिया। इससे गणेश जी की तपस्या भंग हो गयी और उन्हें अत्यंत क्रोध आया और बोले की मैं बालक हूँ और आजीवन ब्रह्मचारी व्रत का पालन करना चाहता हूँ और उन्होंने तुलसी को विवाह के लिए मना कर दिया। जिससे तुलसी को भी क्रोध आया और उसने भगवान गणेश को श्राप दिया की - “आप आपने व्रत का पालन नही कर सकते है और १ नहीं आपको २ शादियाँ करनी पड़ेगी”। इस श्राप से गणेश जी को और अधिक क्रोध आया क्यूंकि एक तो उनकी तपस्या अधूरी रह गयी और ऊपर श्राप मिल गया तो उन्होंने भी तुलसी को श्राप दिया की इस जन्म में तुमको एक असुर से शादी करनी पड़ेगी जिससे इस जन्म में वो अपना व्रत (भगवान श्री कृष्ण को पति के रूप में पाना) पूरा नहीं कर पायेगी और मेरी तपस्या अधूरी रह गयी है तो मेरी पूजा में कभी तुलसी नहीं डाली जाएगी। तब तक तुलसी के आँखों पर पड़ा पर्दा हट गया था और उसे अपनी गलती का आभास हो गया। उसने गणेशजी से माफी मांगी और विनती करी की उसे श्राप मुक्त करदे।
गणेश मंत्र - "ऊँ गं गणपतये वरवरद सर्वजनं में वशमानय स्वाहा " से उनकी पूजा करी। तब भगवान गणेश का क्रोध शांत हुवा और बोले की तुम तुलसी नामक पवित्र और औषधीय पौधे के रूप में हर घर में पूजनीय रहोगी और तभी उस रूप में तुम्हारा विवाह विष्णु जी के अवतार से होगा। आज भी इस मंत्र से विवाह में आ रही बाधाये दूर होती है। इसके बाद तुलसी गणेश जी के आशीर्वाद से फिर से तपस्या में लीन हो गयी और जब तक लीन रहना था तब तक कोई विवाह प्रस्ताव ना रख दे।
उधर शंखचूड़ अपनी तपस्या में लीन था जो देवताओं के लिए आने वाले तूफान का संकेत था। शंखचूड़ की तपस्या से ब्रह्मा देव प्रसन्न हुवे और उसको दर्शन दिए। शंखचूड़ ने उनसे 3 वरदान देने को कहा, ब्रह्मा जी ने उसे 3 वरदान देने का वचन किया।
पहला वरदान माँगा की उसके वरदान कोई और ना सुन सके व् आप स्वंय भी (ब्रह्मा जी) किसी को ना बताये।
दूसरा वरदान - ऐसा कवच दे जिससे उसको कोई मार ना सके, तो उसे कृष्ण कवच दिया तथा ब्रह्मा जी ने बोला कोई नहीं मार सकता परन्तु भोले शंकर यदि युद्ध करे तो मृत्यु जरूर हो जाएगी।
तीसरा वरदान - तीसरे वरदान में उसने अमृत माँगा जो ब्रह्मा जी ने देने से मना कर दिया परन्तु शंखचूड़ अत्यधिक चतुर था उसने ब्रह्माजी को बोला की आपने वचन दिया है 3 वरदान देने का तो आप अपना वचन निभाये, तब ब्रह्माजी ने कहा कि अगर तुम्हारी अर्धांगिनी पतिव्रता धर्म का पालन करे तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं हो सकती यही अमरत्व वरदान है।
वरदान पाने के बाद शंखचूड़ ने अपने लिए अर्धांगिनी खोजना चाहा जिसके लिये उसने भगवान गणेश की आराधना करी और उनके सुयोग्य कन्या खोजने में सहायता माँगी। गणेश जी ने शंखचूड़ को तुलसी तक जाने का मार्ग दिखाया। शंखचूड़ ने तुलसी को देखा तो उसे ऐसा लगा जैसे इनका रिश्ता जन्मजन्मांतर का नाता है। उसने तुलसी को विवाह प्रस्ताव दिया और तुलसी ने अपनी तपस्या पूरी करी। दोनों ने गंधर्व विवाह किया और अपने असुर लोक को गए। विवाह के बाद तुलसी सदा पतिव्रता रही और अपने पति की सेवा किया करती थी। जो कि शंखचूड़ के लिए कवच के समान था।
इसके बाद शंखचूड़ ने देव लोक पर आक्रमण किया उसके पास कृष्ण कवच था तो भगवान विष्णु उसको मार नहीं सकते थे, इसलिए देवता भोलेनाथ के पास गए और रक्षा की विनती करने लगे। युद्ध पर जाते हुए तुलसी ने अपने पति शंखचूड़ से कहा कि "स्वामी आप युद्ध पर जा रहे और जब तक आप जीत हासिल कर वापस नहीं आ जाते तब तक मै आपके लिए पूजा (अनुष्ठान) करती रहूंगी और आपकी जीत का संकल्प नहीं छोडूंगी "। जब शिव गण भी उससे जीत ना पाए तो गणेश ने युक्ति निकली और शंखचूड़ से उसके दूसरे कवच के बारे में पूछा। बातों ही बातों में शंखचूड़ ने तुलसी के बारे में बता दिया तब गणेश जी विष्णु लोक गए और विष्णु जी को इसका हल निकलने के लिए प्रार्थना करी। भगवान विष्णु बड़े ही असमंजस की स्थिति में थे, वे सोच रहे थे कि तुलसी को कैसे रोका जाए क्यूंकि तुलसी मेरी परम भक्त है और में उसके साथ छल नहीं कर सकता। तब गणेश जी ने कहा - परन्तु तुलसी के संकल्प को छल के सिवा भंग नहीं कर सकते है।
इस वृत संकल्प को तोड़ने के लिए भगवान ने शंखचूड़ का रूप धारण किया और तुलसी के महल में पँहुच गये। तुलसी ने जैसे ही अपने पति शंखचूड़ को देखा तो वह तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरण छुने लगी। पूजा से उठते ही तुलसी का संकल्प टूट गया, जिससे शंखचूड़ की शक्तियाँ क्षीण हो गयी और शिव जी ने शंखचूड़ का सिर धड से अलग करके उसे मार दिया। तुलसी को इसका आभास हो गया और रोने लगी, फिर पूछा कि ये जो मेरे सामने खड़े है, आप कौन है?
उसने पूँछा - आप कौन हो जिसको मैंने स्पर्श किया है, तब भगवान अपने सही रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके, तब तुलसी सारी बात समझ गई कि उसके साथ उसके पूजनीय भगवान विष्णु ने छल किया है, छल से उसके पति के प्राण हरे गए है।
तब भगवान विष्णु जी ने उनको सारा स्मरण कराया कि कैसे सुदामा और तुलसी को राधा रानी से श्राप मिला था। तो शंखचूड़ यानि की सुदामा को १ श्राप से मुक्ति मिल गयी और दूसरे श्राप को पूरा करने के लिए (कृष्ण अवतार में दरिद्र ब्राह्मण का श्राप) गौ लोक में रहना है।
तुलसी की सच्ची प्रेम भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे सदा अपने साथ पूजे जाने का आशीर्वाद प्रदान किया। साथ ही तुलसी के पौधे को सब घर में आँगन में पूजनीय माना जाये और अपने शालिग्राम अवतार से तुलसी से विवाह किया।
सबसे पहले शिव लोक पर तुलसी और शालिग्राम का विवाह माता पार्वती और भगवान शिव ने किया था तब से कार्तिक मास में देव-उठावनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह की परंपरा है।
हिन्दू धर्म में सभी अपने दरवाजे या आंगन में तुलसी का पौधा लगाते है जो की अत्यंत शुभ माना जाता है और यह शरीर के कई विकारों के लिए भी फायदेमंद है। किसी भी शुभ कार्य में तुलसी के पत्ते को शामिल किया जाता है। चरणामृत के साथ तुलसी को मिलाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
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