होली के पर्व की तरह इसकी परंपराए भी अत्यंत प्राचीन हैं साथ ही इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था जिसमे पूर्ण चंद्रमा की विधिवत पूजा करने की परंपरा थी।
वैदिक काल में इस पर्व को "नवात्रैष्टि यज्ञ" कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न (गेहूं और चना) को यज्ञ में दान करके प्रसाद के रूप में लेने का विधान था। इस अधपक्के अन्न को "होला" कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र सुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व "नवसंवत" का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है।
इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म भी हुआ था, इस कारण इसे "मन्वादितिथि" भी कहते हैं।
होली मनाने का तरीका -
१ - पर्व का पहला दिन "होलिका दहन" का दिन कहलाता है। होली पूजा वाले दिन संध्या के समय होलिका दहन किया जाता है जिसमे लोग अग्नि की पूजा करते हैं। होली का पहला काम "होली का डंडा गाड़ना" होता है। किसी सार्वजनिक स्थल या गली - मोहल्लो के चौराहों में लकड़ी और कंडों की होली के साथ घास लगाकर होलिका खड़ी करके उसका पूजन करते है। पूजन के लिए हाथ में असद, फूल, सुपारी, पैसा लेकर पूजन कर जल के साथ होलिका के पास छोड़ दें और अक्षत, चंदन, रोली, हल्दी, गुलाल, फूल तथा गूलरी की माला पहनाएं। गाय के गोबर से बने ऐसे उपले जिनके बीच में छेद होता है जिनको "गुलरी, भरभोलिए या झाल" आदि कई नामों से अलग अलग क्षेत्र में जाना जाता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।
इसके बाद होलिका की तीन परिक्रमा करते हुए नारियल का गोला, गेहूं की बाली (कच्चे गेहूं) तथा चना को भूंज कर इसका प्रसाद सभी को वितरित करते है। होली की परिक्रमा करना अत्यंत शुभ माना जाता है। दिन ढलने पर मुहूर्त के अनुसार होली का दहन किया जाता है।
होली के दिन घरों में हलवा, खीर, पूरी और पकवान बनाए जाते हैं। होलिका दहन के बाद थोड़ी अग्नि घर ले जाते है और घर में बने पकवानों से भोग लगाया जाता है। होली के दिन "गुझिया, कांजी, भांग, ठंडाई, बेसन के सेव और दहीबड़े" जैसे व्यंजन विशेषकर बनाये जाते है |
२ - होली से अगला दिन "धूलिवंदन" कहलाता है। दूसरे दिन सुबह से ही लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि लगाते हैं, ढोल बजा कर और चंग की थाप पर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। गुलाल और रंगों से ही सबका स्वागत किया जाता है। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं।
होली के मनभावन रंग कैसे बनते है -
पहले होली के रंग टेसू या पलाश के फूलों से बनते थे जिन्हे गुलाल कहा जाता था। फूलो से बने ये रंग त्वचा के लिए हानिकारक नहीं होते थे क्योंकि इनमें किसी भी प्रकार का रसायन नहीं होता था। लेकिन समय के साथ रंगों की परिभाषा बदलती गई। आज के आधुनिक समय में रंगो में हानिकारक रसायन का उपयोग होने लगा है जो त्वचा और आँखों के लिए बहुत नुकसानदेह हैं। इन खराब रंगों के चलते ही कई लोगों ने होली खेलना छोड़ दिया है। हमें इस त्योहार को इसके सच्चे स्वरुप में ही मनाना चाहिए।
होली के त्योहार का मतलब ईर्ष्या और कलह को छोड़कर अपनापन लाना है, यह त्योहार हमे आपसी प्यार और स्नेह का पाठ पढ़ाता है। हम इसकी परिभाषा को पूरी तरह से भुला बैठे है। इस होली पर प्रण करते है कि त्योहार को उसकी परिभाषा के साथ मनाएंगे और हम उस प्रण को निभाएंगे भी।
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