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पूर्वी भारत में हुगली नदी के किनारे स्थित कोलकाता (पूर्व नाम - कलकत्ता) को भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में जाना जाता है। यह शहर अपनी भव्य औपनिवेशिक इमारतों, समृद्ध परंपराओं, सुंदर संगीत और कला के कारण एक अनोखा चरित्र रखता है। यहां रवींद्रनाथ टैगोर और सत्यजीत रे जैसे महान कलाकारों ने अपनी पहचान बनाई है, और यहां के लोग साहित्य और सिनेमा के गहरे पारखी माने जाते हैं। हर साल यह शहर दुर्गा पूजा के दौरान एक अद्भुत धार्मिक और सांस्कृतिक अनुभव प्रदान करता है।
दुर्गा पूजा, भारत के एक प्रमुख त्योहारों में से एक है, जिसे देशभर में पूरे उत्साह और भव्यता के साथ मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में अत्यधिक महत्वपूर्ण है, इसके अलावा ओडिशा, बिहार, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में भी इसे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व अच्छाई की बुराई पर जीत का प्रतीक है, जो देवी दुर्गा की महिषासुर पर विजय को दर्शाता है। बंगाली समुदाय के लिए यह छह दिन का उत्सव होता है, जिसे महालया, महा षष्ठी, महा सप्तमी, महा अष्टमी, महा नवमी और विजयदशमी के रूप में मनाते है।
बड़े बड़े आकर्षक पंडाल में माँ दुर्गा की मूर्ति को विराजित किया जाता है। जिसकी सजावट बहुत ही पारंपरिक तरीके से होती है। हर पंडाल की सज्जा देखते है बनती है। “दुग्गा दुग्गा” का जाप करती हुई सभी महिलाएं पूजा (पूजो) के लिए पंडालों की तरफ जाती है, जिसमे वे सब माता से जीवन में आगे की सुरक्षित यात्रा की कामना करती है। घर के हर कोने में ज्योतिर्मय धुनुची की सुगंध के फैली होती है। ढाक से आने वाली तीव्र ताल की आवाज़ कोलकाता की सड़कों को गुंजायमान कर देती है। सब सुंदर पोशाक लाल और सफ़ेद साड़ी पहनें हुए, भारी गहने, माथों पर सिंदूर और बिंदियों के साथ मोटी चूड़ियाँ पहनें महिलाओं का रूप देखते बनता है।
नौ दिनों तक जब माँ दुर्गा अपने चार बच्चों के साथ बाशा (घर) में रहती हैं, तब तक गलियों में रंग और उत्सव का उल्लास भरपूर होता है, और दसवें दिन माता का अपने पति शिव के साथ मिलन होता है जिसे "विजयदशमी" के रूप में मनाते है। यह वास्तव में यहां समाप्त नहीं हो जाता है बल्कि दुर्गा पूजा की विशाल भव्यता और शैली केवल नौ दिनों के त्यौहार तक ही सीमित नहीं है। जबकि यह स्वयं उन भक्तों के दिलों में घर करती है, जो जीवन में आने वाली छोटी-छोटी अड़चनों पर "माँ दुग्गा" का उच्चारण और स्मरण करते हैं। शहर की गलियों में लंबे समय तक पूजा की समाप्ति के बाद भी उल्लू ध्वनि (बहुत ही शुभ और बुरी शक्तियों से बचाव करने वाली एक उच्च-स्वर ध्वनि जो दोनों गालों पर जीभ से आघात करके उत्पन्न होती है) गूँजती रहती है। जिसे बुरी शक्तियों से रक्षा करने वाला माना जाता है।
क्या है दुर्गा पूजा का इतिहास?
दुर्गा के जन्म की कहानी देवी भागवतम् में वर्णित है। किंवदंतियाँ देवी दुर्गा को हिंदू देवगणों में तीन सबसे शक्तिशाली देवों - ब्रह्मा (निर्माता), विष्णु (संरक्षक) और शिव (संहारक) - की रचना के रूप में बताती हैं। जिनकी रचना महिषासुर के वध के लिए हुई।
इस पवित्र ग्रंथ के अनुसार, महिषासुर नामक एक असुर का जन्म हुआ, जिसने असुरों पर देवताओं की हर जीत देखी। असुरों की लगातार हार से परेशान होकर, उसने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या शुरू की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया कि उसे न कोई मनुष्य मार सकेगा, न कोई देवता, केवल एक महिला ही उसकी मृत्यु का कारण बन सकती है। इस वरदान का लाभ उठाते हुए, महिषासुर ने असुरों की सेना के साथ पृथ्वी और स्वर्ग पर आक्रमण किया। पृथ्वी पर बजट लूटपाट मचाई और अमरावती में इंद्र से युद्ध किया। अंततः इंद्र की सेना को हराकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। तब देवताओं ने हारकर त्रिदेवों से मदद की गुहार लगाई।
देवताओं की हार से दुखी और क्रोधित त्रिदेवों ने इस पर गहन विचार किया। महिषासुर को मिले वरदान को ध्यान में रखते हुए, भगवान ब्रह्मा ने कहा, "महिषासुर का वध केवल एक स्त्री ही कर सकती है।" परंतु तीनों लोकों में ऐसी कोई शक्तिशाली महिला नहीं थी जो युद्ध कर सके। तब त्रिदेवों ने अपनी संयुक्त शक्तियों से देवी दुर्गा की रचना की। सभी देवताओं ने देवी को अपने-अपने अस्त्र दिए, और हिमालय के देवता हिमवत ने उन्हें एक शेर दिया।
अमरावती में देवी दुर्गा को देखकर महिषासुर एक स्त्री से युद्ध करने के विचार पर हंस पड़ा, लेकिन युद्ध के दौरान उसे देवी की असीम शक्तियों का आभास हुआ। दस दिनों की भीषण लड़ाई में, महिषासुर ने कई रूप बदले, पर देवी दुर्गा अडिग रहीं। अंततः, जब महिषासुर अपने भैंस के रूप में आया, तो देवी दुर्गा ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, और इस प्रकार, स्वर्ग और पृथ्वी को अत्याचारी महिषासुर से मुक्त कर दिया। इसलिए, देवी दुर्गा को "महिषासुर मर्दिनी" कहा गया। यह दृश्य दुर्गा पूजा की मूर्तियों में दिखाया जाता है, जहाँ माँ दुर्गा असुर का वध करती हुई उसी तरह दिखाई जाती हैं जैसे तांडव करते हुए शिव की मुद्रा होती है।
दुर्गा पूजा का इतिहास -
एक आराध्य के रूप में देवी की उत्पत्ति काफ़ी समय पहले ही हो गयी जिसका उल्लेख हमें वैदिक युग के विभिन्न ग्रंथों और रामायण एवं महाभारत में भी मिलता है। इसके बाद भी, 15वीं शताब्दी में कृत्तिवासी द्वारा रचित रामायण के वर्णन के अनुसार रावण के साथ युद्ध करने से पहले भगवान राम ने दुर्गा की पूजा 108 नील कमल और 108 पवित्र दीपों से की थी। इसके साथ ही जिस दिन भगवान राम ने रावण को युद्ध में हराया था उस दिन दुर्गा पूजा का दशमी का दिन था। इसलिए विजय दशमी और दशहरा एक ही दिन मनाया जाता है।
दुर्गा पूजा पंडाल -
16वीं शताब्दी के साहित्य में पश्चिम बंगाल के ज़मींदारों द्वारा दुर्गा पूजा के भव्य आयोजन के प्रथम उल्लेख मिलते हैं। विभिन्न लेख बताते हैं कि राजा और ज़मींदार अपने गाँवों के लिए दुर्गा पूजा का आयोजन करते थे और इसका पूरा खर्च वहन करते थे। "बोइन्दो बारिरी पूजो" (ज़मींदारों के घरों में पूजा) की परंपरा आज भी बंगाल में जीवित है, जहाँ बड़े घराने अपनी हवेलियों के आँगन में माँ दुर्गा की मूर्ति स्थापित करते हैं और लोगों को पूजा के लिए आमंत्रित करते हैं।
दुर्गा पूजा की परंपरा को प्लासी के युद्ध (1757) से भी जोड़ा जाता है, जब अंग्रेज़ों ने नवाब सिराजुद्दौला को हराकर बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया। इस जीत के बाद, अंग्रेज़ों ने पूरे बंगाल में दुर्गा पूजा का आयोजन किया, जिससे एक नई सामाजिक और सांस्कृतिक लहर उठी और दुर्गा पूजा का महत्त्व बढ़ गया।
1760 ईस्वी में बंगाल में पहली बार दुर्गा पूजा के दौरान पंडाल सजाने की शुरुआत हुई। यह परंपरा दुर्गा पूजा को धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण साबित हुई, और तब से यह बंगाल की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन गई।
दुर्गा पूजा के आयोजन को लेकर कई दूसरी कहानियां -
दुर्गा पूजा के आयोजन को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार, नौवीं सदी में बंगाल के एक युवक ने पहली बार दुर्गा पूजा की शुरुआत की थी। वहीं, विद्वान रघुनंदन भट्टाचार्य का भी नाम इस पूजा के पहले आयोजन से जुड़ा हुआ है। एक और कहानी बताती है कि ताहिरपुर के ज़मींदार नारायण ने कुल्लक भट्ट नामक पंडित के निर्देशन में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया। समय के साथ, यह पूजा और अधिक लोकप्रिय होती गई और इसे बड़े पैमाने पर भव्य तरीके से मनाने की परंपरा बन गई।
दुर्गा पूजा का महत्व -
1. बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक : दुर्गा पूजा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। यह पर्व उस पौराणिक घटना का स्मरण कराता है, जब देवी दुर्गा ने महिषासुर नामक राक्षस का वध कर संसार को उसके अत्याचार से मुक्त किया था।
2. महिला शक्ति का प्रतीक : यह त्योहार स्त्री शक्ति का भी प्रतीक है। देवी दुर्गा को समर्पित यह पर्व महिलाओं की शक्ति और उनके साहस का सम्मान करता है, जो समाज में समानता और सम्मान की भावना को बढ़ावा देता है।
3. भव्यता और विशालता का पर्व : दुर्गा पूजा भारत के सबसे भव्य और विशाल त्योहारों में से एक माना जाता है। खासतौर पर पश्चिम बंगाल में, यह उत्सव अत्यंत धूमधाम और उल्लास के साथ मनाया जाता है। विशाल पंडाल, रंग-बिरंगे आयोजन और सांस्कृतिक कार्यक्रम इसे अनोखा बनाते हैं।
4. सामाजिक और सांस्कृतिक एकता : इस पर्व का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें समाज के सभी वर्ग, जाति, और समुदाय के लोग एक साथ आते हैं। यह भाईचारे और सामाजिक सद्भावना को बढ़ावा देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
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