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जैसा कि हम जानते हैं भारत देश त्योहारों का देश है और हर त्योहार के पीछे कोई न कोई वजह या परंपरा जरूर होती है, मार्च महीना चल रहा हैं, बसंत का आगाज हो चुका है, आम के पेड़ों पर मोड़ (आम के फूल)आ गए हैं । और प्रकृति ने चारों और रंग बिखेर दिया है। जीवन में अनेक रंग, रंग ना हो तो बैरंग जिंदगी जिसमें खुशियों का स्वाद ना होता ।
रंगो के त्योहार होली की ही आज हम बात करते हैं, जीवन में रंगों का अपना एक महत्व है, हरेक रंग कुछ ना कुछ कहता है - अंबर नीला है तो धरती हरी भरी है, हमारे यहाँ तो प्रकृति में ही रंग बिखरा है, तो भला हम रंगों से दूर कैसे रह सकते हैं।
होली का त्योहार फागुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है एक पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष दो भाई थे, हिरण्याक्ष बहुत ही क्रूर और अत्याचारी था, उसके बढ़ते पाप को देखकर को देखकर भगवान विष्णु ने उनका संहार किया था। भाई की मृत्यु से हिरण्यकश्यप बहुत दुखी हुआ, उसने अपने राज्य में भगवान विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया और उसने अपनी प्रजा से कहा कि वह उसकी पूजा करें । उसने भगवान विष्णु को पराजित करने के लिए ब्रह्माजी और शिवजी की तपस्या की और वरदान प्राप्त किया।
हिरणकश्यप के एक पुत्र प्रहलाद था, जो बचपन से ही भगवान विष्णु का बड़ा भक्त था। प्रहलाद को भगवान विष्णु की भक्ति करते देखा तो, उसे क्रोध आया। उसने पुत्र प्रहलाद को कई तरह की यातनाएं दी, लेकिन प्रभु की भक्ति के कारण प्रहलाद को आंच नहीं आती।
हिरणकश्यप प्रहलाद को मारने के लिए युक्ति सोचने लगा, हिरण्यंकश्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाया। हिरण्यकश्यप ने होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रहलाद को लेकर बैठ जाए। (होलिका को वरदान था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती) अग्नि प्रज्वलित होगी तो प्रहलाद जलकर खाक हो जाएगा, और तुम बाहर आ जाना । लेकिन अधर्म और पाप के कारण होलिका जल जाती है। और भगवान विष्णु का जाप करता हुआ प्रहलाद सुरक्षित बाहर आ जाता है । उस दिन से होलिका का दहन किया जाता है ।
अधर्म पर धर्म की विजय होती है और इसी उत्साह में सब लोग एक दूसरे को रंग और गुलाल लगाते है ।
होलिका दहन
इस पौराणिक मान्यता के कारण ही आज भी हम होलिका दहन करते है लकड़ियों को रखकर, गोबर के थेपले जैसे गोलाकार चक्रियो जैसी बड़बुले की माला और गोबर से ही नारियल बनाकर लड़किया होलिका की पूजा करके चढ़ाती है । और उस नारियल को भाई द्वारा फोड़ा जाता है, उसके बाद लड़किया अपनी सहेलियों के घर परमल बाँटती है। उसके बाद संध्या मुहर्त में होलिका पुजन और दहन नगर जन द्वारा किया जाता है उसके बाद जलती हुई होली में गेहूँ की बालियों (नई फसल) को भूनकर खाया जाता है ।
होलिका दहन के अगले दिन धुंलेडी होती है, रंगों का ये त्योहार पंचमी और सप्तमी और रंग तेरस तक चलता रहता है । अलग अलग प्रान्त में रंगों का ये त्योहार खूब उत्साह से मनाया जाता है। पूर्णिमा को होलिका दहन और उसके बाद धुलेंडी और रंगपंचमी।
हमारी परम्पराओं की बात निराली हैं, हम होली को जलाते भी हैं और उसे शीतल भी करते हैं छः दिनों तक, और ठंडा खाना बनाकर सप्तमी के दिन खाते है और राजस्थान में तो इस दिन होली भी खेलते है ।
गावँ में तो आज भी चूल्हा( अगले दिन) होली की आग लाकर ही जलाते थे । रंगों का ये त्योहार कई जगह रंग तेरस के दिन भी मनाते है, दिन भर होली खेलते हैं और शाम को भोजन का आयोजन होता है ,जुलुस की भव्यता भी देखने लायक होती है । मंदिरों में फागुन के पुरे महीने में भजन और रंग गुलाल की मस्ती छाई रहती है ।
"बुरा न मानो होली है" ऐसा कहकर सभी को रंग लगाया जाता है जिससे दुश्मन भी दोस्त बन जाता है और चारों और खुशियों के रंग बिखर जाते है ।
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