Bhartiya Parmapara

महाराष्ट्र की महालक्ष्मी

‘गणेश चतुर्थी’ वैसे तो पूरे भारत में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता हैं। परंतु महाराष्ट्र की आन-बान-शान और जान भी जैसे गणपति में ही बसती हैं। हर घर, गली, छोटी- बड़ी सॉसायटीज, कोलोनिज और लगभग हर समाज में बड़े ही थाट-बाट से मनाया जाने वाला उत्सव यानी गणेश उत्सव। कही डेढ़ दिन, कही पाँच दिन तो कही दस दिन के लिए मेहमान बनके आता है और सभी को अपने भक्ति में डुबो के अगले साल के इंतज़ार में छोड़ जाता हैं।



 

 

Mahalaxmi

महाराष्ट्रियन महिलाओं के लिए गणपति के दिनो में आने वाला एक और महाउत्सव है वो है ‘महालक्ष्मी’! कहते है महालक्ष्मी ने महिलाओं के सुहाग की रक्षा करने के लिए असुरों का नाश किया था। इसीलिए उनको ‘सुहागिन के सौभाग्य’ (सावशन्यांच्या सौभाग्याची) की गौरी भी कहा जाता हैं। दो बहने ‘जेष्ठा और कनिष्ठा’ बच्चों के साथ अपने मायके में आती है यह इसके पीछे की संकल्पना हैं। 
लगभग एक महीने पहले महालक्ष्मी के आने की तैयारी शुरू हो जाती हैं। साफ़-सफ़ाई, फ़राल, नये नये पकवान, डेकोरेशन, रंगोली और भी बहुत कुछ। घर में एखादे शादी की तैयारी हो ऐसे सभी बड़े, रिश्तेदार, सखी-सहेलियाँ काम में , मदद में जुट जाती हैं। 
भाद्रपद महीने के शुद्ध पक्ष, अनुराधा नक्षत्र सप्तमी के दिन बड़े ही सम्मान से उनका आगमन होता हैं। उनको घर के तुलसी से भगवान तक ले जाया जाता हैं, जिस सुहागन के हाथ में गौराई है उसके पैर धोके पूजा की जाती है, दरवाज़े से लेकर भगवान के घर तक हल्दी कुमकुम से लक्ष्मी के पैरो के ठसे बनाए जाते हैं।गाजे -बाजे से उनका स्वागत होता है। अंदर लाते समय ‘लक्ष्मी आली सोन्याच्या पावलांनी,- - -धनधान्याच्या राशी, - - -आरोग्य संपदा’ याने लक्ष्मी सुख, समृद्धि लेकर आई ऐसा बोलके लाते हैं। उनको भगवान के सामने बिठाके आरती की जाती हैं और सब्ज़ी रोटी का भोग लगाया जाता है, फिर सुहागन की तरह सजा के उनको पूजा स्थल पे खड़ा किया जाता हैं।



 

 

दूसरे दिन याने अष्टमी को सुबह जेष्ठ नक्षत्र में उनकी पूजा आरती करके फ़राल का भोग लगाया जाता है। गौराई के सामने धान्यों की रास सजाई जाती है। इससे घरमें सुख शांति एवं समृद्धि में बढौत्री होती हैं। कुछ जगह पे दोपहर को या शाम को महा आरती करके पंच पकवान का भोग लगाया जाता है। इसमें पूरन पोली, सोलह तरह की सब्ज़ियाँ, चटनियाँ, आमिल, अचार-पापड़, पंचामृत, तरह-तरह के भजे आदि सभी व्यंजनों को केले के पत्ते पर सजा के भोग लगाया जाता हैं। जान पहचान वालों को प्रसादी के लिए बुलाया जाता है। शाम को घर की सभी महिलायें सजधज के तैयार होती हैं और आसपास की, रिश्ते में की सभी सुहागन महिलाओं को हल्दी-कुंकुं के लिए आमंत्रित किया जाता हैं। इस दिन महालक्ष्मी का चेहरा इतना तेजस्वी होता है की पुरा घर जगमगा जाए और एक विशेष उत्साह एवं आनंद की अनुभूति होती हैं।
मायके आई हुई बेटी ससुराल के लिए निकलते समय जैसी तैयारी होती है और जो हालत माँ-बेटी की होती है वैसा ही माहौल घर में तीसरे दिन बन जाता हैं। मुल नक्षत्र नवमी के दिन पाँच-सात महिलाओं को बुलाके महालक्ष्मी के रवानगि की विधिवत तयारी शुरू हो जाती हैं। पूजा आरती करके गौराई की ओटी भरी जाती है। शेवली के खीर का भोग लगा के सभी में बाँट दिया जाता है। आखिर में महालक्ष्मीयों को मुहूर्त के हिसाब से विसर्जन (जगह से हिला देना) कर दिया जाता है।
अलग अलग जगह पर अपने अपने वंश परम्परा के अनुसार चलते आ रहे विधि से सभी गौराई के चाहने वाले अपनी पूरी भाव-भावनाओं से, तो कोई मन्नत से पुजा संपन्न करते हैं। पर एक बात जो ग़ौर करने जैसी है कि इनके आगमन की और विसर्जन की तिथि कभी एक दिन कम-ज़्यादा सुनने या देखने में नहीं आती। बडे ही सम्मान से पहले दिन आती है, दूसरे दिन लाड़ कोड करवा के ढेर सारा प्यार पा के तीसरे दिन भर भर के सभी को आशीर्वाद दें के अपने मान से रवाना हो जाती है ।और घर वालों को पूरे प्रेम भावों में डुबो के अगले साल की प्रतीक्षा में छोड़ जाती है । 
 

ऐसी मनभावन, सबके दिलों पर राज करने वाली हैं महाराष्ट्र की महालक्ष्मी!



 

 

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