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हरतालिका तीज वास्तव में 'सत्यम शिवम सुंदरम' के प्रति आस्था और प्रेम का व्यवहार है। वास्तव में हरतालिका तीज सुहागन का त्यौहार है। भारतीय संस्कृति एवं हिंदू धर्म में महिलाओं के जो विशेष व्रत होते हैं, उसमें हरतालिका तीज का विशेष एवं महत्वपूर्ण स्थान है। अन्य व्रत की अपेक्षा इस व्रत के नियम कुछ कठोर हैं, यही कारण है कि यह व्रत संपूर्ण भारत में नहीं रखा जाता। यह व्रत विशेषकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश बिहार, झारखंड एवं राजस्थान के कई इलाकों में मनाया जाता है। यह देखते हुए कह सकते हैं यह व्रत विशेष कर हिंदी भाषी प्रदेशों में प्रमुखता से मनाया जाता है।
हरितालिका व्रत "हस्त गौरी व्रत" के नाम से भी जाना जाता है। यह भादो मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया हस्त नक्षत्र में होता है तथा हरियाली तीज के बाद आता है। माँ पार्वती का सौभाग्यदायक व्रत हरतालिका विवाहित महिलाएँ और कुँवारी कन्याएँ श्रद्धा के साथ रखती हैं। भगवान शिव और पार्वती की पूजा अखंड सुहाग के लिए, पति सुख प्राप्त करने के लिए करती हैं। कुँवारी कन्याएँ पूजा कर अच्छा वर प्राप्त हेतु कामना करती हैं। चूँकि सुहागन स्त्रियाँ अखंड सुहाग के लिए व्रत करती हैं इसलिए इसे "अखंड सौभाग्यवती व्रत" भी कहा जाता है।
हरतालिका नाम क्यों?
भादो मास में प्रकृति अपने पूरे यौवन पर होती है। सभी ओर हरियाली छायी होती है। प्रकृति का सौंदर्य मनमोहक होता है। नव शाखा, नव किशलय, नव पल्लव एक दूसरे को स्पर्श कर प्यार का इजहार करते हैं, और मानव जीवन को भी मधुर एहसास होता हैं। कहा जाता है माता पार्वती महादेव को अपना पति बनाना चाहती थी, इसके लिए उन्होंने कठिन तपस्या की। इसी तपस्या के दौरान पार्वती जी की सहेलियाँ पार्वती को हरण अर्थात अगवा कर ले गयी, इस कारण इस व्रत का नाम हरतालिका पड़ा। "हरत शब्द हरण से बना है जिसका अर्थ अपहरण करना तथा आलिका का अर्थ होता है सखी"। सखियों ने इसलिए अपहरण किया कि पार्वती जी की शादी विष्णु भगवान से ना हो जाए जबकि पार्वती शंकर जी से विवाह करना चाहती थी।
व्रत के नियम एवं विधि -
यह व्रत तीन दिन का होता है। प्रथम दिन दूज होती है। व्रती नदी या तालाब में स्नान कर सुंदर वस्त्र धारण करती है (कहीं-कहीं यह वस्त्र व्रत करने वाली स्त्री के मायके से आते हैं)। विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर ग्रहण करती हैं; हाथों में मेहंदी, पैर में महावर, नई चूड़ियां, नई बिछुड़ी धारण करती हैं। सिर से लेकर नख तक सोलह श्रृंगार करती हैं। रात में नारियल तथा पेड़ा खाकर सोती हैं।
दूसरे दिन प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान कर पूजन की तैयारी करती है। प्रातःकाल की गई पूजा श्रेष्ठ मानी जाती है। किसी-किसी स्थान पर फुलारा सजाते हैं, तथा सामूहिक रूप से बैठकर पूजा करते हैं। इस दिन जल तक ग्रहण नहीं करते, निर्जल व्रत होता है। पूजा करने से पहले सुहागन स्त्री पूरा श्रृंगार करके पूजा करती है। जो फुलौरा सजाते हैं वह सात बार साथ में पूजा करती हैं, तथा रात जागरण कर भगवान का भजन करती है।
तीसरे दिन प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करने के बाद भगवान शंकर और पार्वती की पूजा कर सुहाग लेती है। उसके उपरांत पूजन की सामग्री तथा शंकर एवं पार्वती की पार्थिव प्रतिमा किसी नदी या तालाब में एक साथ ले जाकर जल में प्रवाहित कर देती हैं। भगवान शंकर एवं पार्वती पर चढ़ाए गए वस्त्र ब्राह्मण को दान दिया जाता हैं। उसके उपरांत ही वह जल पीकर अपना व्रत तोड़ती है।
पूजन की तैयारी -
हरतालिका पूजन के लिए भगवान शिव एवं पार्वती जी की काली मिट्टी एवं बालू रेत मिलाकर प्रतिमा या शिव लिंग हाथों से बनाई जाती है। पूजा स्थल स्वच्छ एवं पवित्र करने के लिए हल्दी या गोबर डालकर लीप कर आटे का स्वास्तिक बनाकर उसके ऊपर चौकी या पाटा रखें। फिर उसपर लाल वस्त्र बिछाकर मिट्टी से बनी शंकर पार्वती जी की प्रतिमा अथवा शिवलिंग रख दे। केले के पत्ते ऊपर लगा दे। थाली में रोली चावल, घी का दीपक, जनेऊ,दूब, फल, नींबू, ककड़ी, नारियल रखें। एक सुहाग की पिटारी जिसमें साड़ी-ब्लाउज, सुहाग की पूरी सामग्री, 16 मिठाई या फल तथा रुपए एवं शिवजी के लिए धोती/अंगोछा रखें। सभी तैयारी करने के बाद देवताओं का आह्वान करते हुए शिवजी पार्वती और भगवान गणेश का पूजन करें। सुहाग सामग्री पार्वती जी को चढ़ाएं तथा शंकर जी को जनेऊ, श्वेत वस्त्र एवं ककड़ी-नींबू अवश्य चढ़ाएं। नारियल लेकर पार्वती जी को अर्घ दें। पति की दीर्घ आयु की कामना करें तथा दंडवत करके स्थान छोड़ें।
पूजन करने के बाद कथा सुनना आवश्यक है। रात्रि में जागरण करना चाहिए। हरतालिका का पूजन प्रदोष काल (प्रदोष काल वह है जब सूर्य अस्त के बाद दिन और रात मिलते हैं) में करें। तीन प्रदोष काल होते हैं।
हरतालिका व्रत की कथा -
माँ पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु कठोर तप किया था। बाल्य काल में अधोमुखी होकर तप किया। तप के समय अन्न का सेवन नहीं किया। कभी सूखे पत्ते कभी सिर्फ हवा का सेवन, कभी कंदमूल का फलाहार किया। सर्दी के रूप में ठंडे जल में खड़े होकर तप किया। यह देखकर उनके पिता बहुत दुखी हुए। इसी समय नारद जी भगवान विष्णु से शादी का प्रस्ताव लाए तथा पार्वती जी के पिता ने स्वीकार कर लिया। माँ पार्वती को जब यह बात मालूम पड़ी तो वह विलाप करने लगी। वह शंकर जी से विवाह करना चाहती थी। माँ पार्वती अपनी सहेलियों के साथ सलाह मशवरा कर के उनके साथ घने वन में चली गई तथा गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना करने लगी। भाद्र पक्ष तृतीया शुक्ल पक्ष के हस्त नक्षत्र को माता पार्वती ने प्रेम से शिव लिंग का निर्माण किया तथा उसकी पूजा कर रात जागरण किया भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छा अनुसार पत्नी के रूप में स्वीकार किया।
व्रत के नियम -
1- यह व्रत निर्जला किया जाता है। दूसरे दिन सूर्य उदय के बाद ही जल ग्रहण किया जाता है।
2- अच्छा वर प्राप्त करने के लिए इस व्रत को कुँवारी कन्या भी रख सकती है।
3- यह व्रत प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जाता।
4- इस व्रत को करने वाली स्त्रियाँ रात्रि में सोती नहीं है अपितु जागरण करती हैं।
5- गर्भावस्था में व्रत करने वाली स्त्री का फलाहार करने से दोष नहीं लगता।
6- यदि स्वास्थ्य खराब रहता हो तो उद्यापन करने के बाद व्रत छोड़ा जा सकता है।
उद्यापन -
हरतालिका तीज व्रत का उद्यापन हरतालिका व्रत के दिन ही करते हैं। उद्यापन 13 वर्ष व्रत करने के पश्चात ही होता है इस व्रत में पति-पत्नी गठबंधन करके उद्यापन करते हैं। पति को भी उसे दिन व्रत रखना होता है उद्यापन में 17 सुहाग की पिटारी होती हैं। बिस्तर, पांच बर्तन, पंडित जी के पांच वस्त्र, मिठाई एवं रुपए आदि होते हैं। उद्यापन करने के बाद व्रत तो रखा जाता है लेकिन फलाहार किया जाता है।
महाभारत काल में भगवान कृष्ण ने माता कुंती को हरतालिका व्रत का विधि-विधान बताया था। संतोष का विषय यह है कि करवा-चौथ के व्रत की तरह इस व्रत पर आधुनिकता का रंग नहीं चढ़ पाया। महिलाओं के जितने व्रत हैं उसमें सबसे कठिन व्रत हरतालिका तीज है। कुछ स्थानों पर अब सास अपना व्रत बहु को दे देती है लेकिन प्रक्रिया तोड़ी नहीं जाती।
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