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रामदेव जयंती | लोकदेवता रामदेव जी पीर

रामदेव जी (बाबा रामदेव, रामसा पीर, रामदेव पीर) बाबा को "पीरो के पीर रामसा पीर" की उपाधी से नवाजा गया है। राजस्थान के एक प्रसिद्ध लोक देवता हैं जिनकी पूजा सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात समेत कई भारतीय राज्यों में की जाती है। रामदेव जयंती, अर्थात् बाबा के जन्मदिवस पर प्रतिवर्ष इनके समाधि-स्थल रामदेवरा (जैसलमेर) पर भाद्रपद माह शुक्ल पक्ष द्वितीया को भव्य अंतरप्रांतीय मेला लगता है, जिसे "भादवा का मेला" कहते हैं। इस मेले में देश के हर कोने से लाखों हिन्दू और मुस्लिम श्रद्धालु बाबा की समाधि पर नमन करने आते हैं। 

रामदेव पीर को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है। जिनका जन्म वि.सं. 1462 को भाद्रपद शुक्ल दूज के दिन तोमर वंशीय राजपूत तथा रूणीचा के शासक अजमलजी तंवर के घर हुआ था। उनकी माता का नाम मैणादे था, पत्नी का नाम नेतलदे, गुरु का नाम बालीनाथ और घोड़े का नाम लाली रा असवार था। अजमल जी किसी समय दिल्ली के सम्राट रहे एवं अनंगपाल तंवर के वंशज थे। बाद में वे आकर पश्चिमी राजस्थान में निवास करने लगे। अजमल जी द्वारिकाधीश के अनन्य भक्त थे। मान्यता है कि भगवान कृष्ण की कृपा से बाबा रामदेव का जन्म हुआ। 

जन्म कथा - माना जाता है कि एक बार अनंगपाल तीर्थयात्रा को निकलते समय पृथ्वीराज चौहान को अपना राजकाज सौंप गए और बोलै की वापस आने पर लौटा दे। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने उन्हें राज्य पुनः सौंपने से मना कर दिया। तब अनंगपाल और उनके समर्थक दुखी हो जैसलमेर की शिव तहसील में रहने लगे। इन्हीं अनंगपाल के वंशजों में अजमल और उनकी पत्नी मैणादे थे। यह दम्पति नि:संतान थे और श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक थे। एक बार कुछ किसान खेत में बीज बोने जा रहे थे कि उन्हें अजमलजी रास्ते में मिल गए। किसानों ने नि:संतान अजमल को देखकर अपशकुन होने की बात कहकर ताना दिया। दुखी अजमलजी ने भगवान श्रीकृष्ण के दरबार में अपनी व्यथा सुनाई। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे स्वयं उनके घर अवतार लेंगे। बाबा रामदेव के रूप में जन्मे श्रीकृष्ण पालने में खेलते हुवे अवतरित हुए और अपने चमत्कारों से लोगों की आस्था का केंद्र बन गए। 

रामदेवजी ने समाज में व्याप्त छूआछूत, जात−पांत का भेदभाव दूर करने और नारी व दलित उत्थान के लिए अथक प्रयास किये। पीर बाबा ने खुद भी अपना जीवन सबकी सेवा में लगा दिया और जिसका सबसे बड़ा उदाहरण अमर कोट के राजा दलपत सोढा की अपंग कन्या नेतलदे को पत्नी स्वीकार कर समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया। 

बाबा रामदेव दलितों के मसीहा थे, जिन्होंने छुआछूत और जात - पांत के खिलाफ कार्य कर दलित हिन्दुओं का पक्ष ही नहीं लिया बल्कि हिन्दू और मुस्लिमों के बीच भी एकता और भाईचारे को बढ़ाकर शांति से रहने की शिक्षा भी दी। बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे, लेकिन उन्होंने राजा बनकर नहीं अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरूरतमंदों की सेवा भी की। इस बीच उन्होंने विदेशी आक्रांताओं से लोहा भी लिया।

      

        

रामदेवरा मंदिर - 
रामदेवरा मंदिर हिन्दुओं एवं मुसलमानों दोनों की ही आस्था का केन्द्र है। मंदिर में बाबा रामदेव की मूर्ति के साथ एक मजार भी बनी हुवी है। इनके समाधी स्थल के पास ही रामदेवजी की शिष्या डाली बाई की समाधी और कंगन हैं। डाली बाई का कंगन पत्थर से बना है और इसके प्रति धर्मालुओं में गहरी आस्था है। श्रद्धालुओं का मानना है कि इस कंगन के अन्दर से होकर निकलने पर सभी प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। मंदिर आने वाले भक्त इस कंगन के अन्दर से निकलने पर ही अपनी यात्रा पूर्ण हुवी मानते हैं। 

डाली बाई - 
बाबा रामदेव जन्म से क्षत्रिय थे लेकिन उन्होंने डाली बाई नामक एक दलित कन्या को अपने घर बहन-बेटी की तरह रखकर पालन-पोषण किया | जिससे समाज को यह संदेश मिलता है कि कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। रामदेव बाबा को डाली बाई एक पेड़ के नीचे मिली थी। यह पेड़ मंदिर से 3 किमी दूर हाईवे के पास बताया गया है। उस पेड़ को डाली बाई का जाल कहा जाता है। 

रूणीचा कुंआ (राणीसा का कुंआ) - 
रामदेवरा मंदिर से 2 किलोमीटर दूर पूर्व में निर्मित रूणीचा कुंआ (राणीसा का कुंआ) और एक छोटा रामदेव मंदिर भी दर्शनीय है। बताया जाता है कि रानी नेतलदे को प्यास लगने पर रामदेव जी ने भाले की नोक से इस जगह पाताल तोड़ कर पानी निकाला था और तब ही से यह स्थल "राणीसा का कुंआ" के नाम से जाना गया। कालान्तर में अपभ्रंश होते−होते "रूणीचा कुंआ" में परिवर्तित हो गया। 

बाबा रामदेवजी मुस्लिमों के भी आराध्य हैं और वे उन्हें रामसा पीर या रामशाह पीर के नाम से पूजते हैं। रामदेवजी के पास चमत्कारी शक्तियां थी तथा उनकी ख्याति दूर दूर तक फैली। बाबा के जन्म से लौकिक एवं अलौकिक चमत्कारों तथा शक्तियों का उल्लेख उनके भजनों, लोकगीतों और लोककथाओं में व्यापक रूप से मिलता है। बाबा ने अपने जीवनकाल में लोगों की रक्षा और सेवा करने के लिए उनको कई चमत्कार दिखाए। जिन्हे परचा कहते है जो उनके लोक गीतों और कथाओं में भैरव राक्षस का वध, घोड़े की सवारी, लक्खी बनजारे का परचा, पांचों पीर का परचा, नेतलदे की अपंगता दूर करने आदि के उल्लेख बखूबी पाये जाते हैं। उनके घोड़े की भी श्रद्धा से पूजा की जाती है। बाबा रामदेव ने इस तरह 24 परचे दिए हैं | उन्होंने पाखण्ड व आडम्बर का विरोध किया। उन्होंने सगुन−निर्गुण, अद्वैत, वेदान्त, भक्ति, ज्ञान योग, कर्मयोग जैसे विषयों की सहज व सरल व्याख्या की। आज भी बाबा की वाणी को "हरजस" के रूप में गाया जाता है।

रामापीर

मक्का के पांचों पीर का परचा - बाबा के चमत्कारो की वजह से लोग दूर दराज गाँवो से रुणिचा आने लगे और अपनी समस्याओं का समाधान करवाने लगे। यह बात रुणिचा और आसपास के गांव के मौलवियों को पसंद नहीं आयी। उन्हें लगा की उनका इस्लाम खतरे में है और जो हिन्दू मुसलमान बने कहीं फिर से अपना धर्म न बदल ले तो उन्होंने बाबा को नीचा दिखाने के लिए कई उपाय किए। जब उन मौलवियों के प्रयास असफल हुए तब उन्होंने यह बात मक्का के मौलवियों और पीरों से कही। उन्होंने बताया कि भारत में एक ऐसा पीर पैदा हो गया है, जो अंधों की आंखें ठीक कर देता है, लंगड़ों को चलना सिखा देता है और यहां तक कि वह मरे हुवे को जिंदा भी कर देता है। 

मक्का के मौलवियों ने इस पर विचार किया और फिर उन्होंने अपने पूज्य चमत्कारिक 5 पीरों को जब बाबा की ख्याति और उनके अलौकिक चमत्कार के बारे में बताया तो वे पाँचो पीर भी बाबा रामदेव की शक्ति को परखने के इच्छुक हो गए। कुछ दिनों में वे पीर मक्का से चलकर रुणिचा के समीप आ गए। 

वहाँ रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा रामदेव से हुई। पाँचो पीरों ने रामदेवजी से पूछा कि हे भाई! रुणिचा यहां से कितनी दूर है? तब रामदेवजी ने कहा कि यह जो गांव सामने दिखाई दे रहा है वही तो रुणिचा है। क्या मैं आपके रुणिचा आने का कारण पूछ सकता हूं? तब उन पांचों में से एक पीर बोला कि हमें यहां रामदेवजी से मिलना है। जब रामदेवजी बोले हे पीरजी! मैं ही रामदेव हूं, बताये में क्या सेवा क्र सकता हूँ ? पाँचो पीर रामदेव बाबा की बात सुनकर कुछ देर उनकी ओर देखते रहे फिर हंसने लगे और बोले कि साधारण-सा दिखाई देना वाला व्यक्ति ये पीर है क्या? 

रामदेवजी बाबा ने उनकी आवभगत की और '‍अतिथि देवो भव:' की भावना से उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। पीरों ने मना करते हुए कहा वे सिर्फ अपने निजी बर्तनों में भोजन करते हैं, जो कि इस समय मक्का में हैं। इस पर रामदेव मुस्कुराए और उनसे कहा कि देखिए आपके बर्तन आ रहे हैं और जब पीरों ने देखा तो उनके बर्तन मक्का से उड़ते हुए आ रहे थे। रामदेवजी की क्षमताओं और शक्तियों से संतुष्ट होकर उन्होंने उन्हें प्रणाम किया तथा उन्हें राम शाह पीर का नाम दिया। पाँचो पीरों ने कहा ‍कि आज से दुनिया आपको "रामापीर" के नाम से पूजेगी। इस तरह से पीरों ने भोजन किया और श्रीरामदेवजी को 'पीर' की पदवी मिली और रामदेवजी, रामापीर कहलाए। बाबा रामदेव की शक्तियों से प्रभावित होकर पाँचो पीरों ने उनके साथ रहने का निश्चय किया। उनकी मज़ारें भी बाबा रामदेव की समाधि के निकट स्थित हैं।  

   भैरव राक्षस परचा - भैरव नाम के एक राक्षस ने पोकरण में बहुत आतंक मचा रखा था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी के 'मारवाड़ रा परगना री विगत' नामक ग्रंथ में इस घटना का उल्लेख मिलता है। भैरव राक्षस का आतंक पोखरण क्षेत्र में 36 कोस तक फैला हुआ था। यह राक्षस मानव की सुगंध दूर से ही सूंघकर उसका वध कर देता था। बाबा के गुरु बालीनाथजी के तप से भैरव राक्षस डरता था, किंतु फिर भी इसने इस क्षेत्र को जीवरहित बना | गुरु बालीनाथ जी ने रामदेव को उसका अंत करने को बोलै | बाबा रामदेवज बालीनाथजी के धूणे की गुदड़ी में छुपकर बैठ गए। जब भैरव राक्षस वहाँ आया और उसने गुदड़ी खींची तब बाबा रामदेव को देखकर वह अपनी पीठ दिखाकर भागने लगा और कैलाश टेकरी के पास गुफा में जा घुसा। वहीं रामदेवजी ने घोड़े पर बैठकर उसका वध करने लगे तो उसने हार मानकर आत्मसमर्पण कर दिया था। बाद में बाबा की आज्ञा मानकर वह मारवाड़ छोड़कर अन्य स्थान चला गया था। 

रानी नेतलदे को परचा - एक बार रानी नेतलदे ने रंगमहल में रामदेवजी से पूछा- 'हे प्रभु! आप तो अत्यंत सिद्धपुरुष हैं, तो बताइए कि मेरे गर्भ में जी संतान है वह क्या है - पुत्र या पुत्री?' इस पर रामदेवजी ने कहा कि तुम्हारे गर्भ में पुत्र है और उसका नाम 'सादा' रखना है। रानी का शक दूर करने के लिए रामदेवजी ने अपने पुत्र को आवाज लगायी। इस पर गर्भ से ही वह पु‍त्र बोल उठा। इस तरह उस शिशु ने अपने पिता के वचनों को सिद्ध कर दिखाया। रामदेवरा से 25 किमी दूर ही उनके नाम से 'सादा' गाँव बसा हुआ है। 

   मेवाड़ के सेठ दलाजी को परचा - कहते हैं कि मेवाड़ के एक गाँव में दलाजी नाम का एक महाजन दम्पति रहता था।। धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं थी, परन्तु उनके कोई संतान नहीं थी। किसी साधु के कहने पर वह रामदेवजी की पूजा करने लगे और मनौती माँगी कि यदि मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हो जाएगी तो सामर्थ्यानुसार एक मंदिर बनवाऊंगा। इस मनौती के 9 माह पश्चात ही उसकी पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया। वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तब सेठ और सेठानी अपने पुत्र और कुछ धन-संपत्ति लेकर रुणिचा के लिए रवाना हो गए। मार्ग में एक लुटेरा भी उनके साथ यह कहकर हो गया कि वह भी रुणिचा बाबा के दर्शन के लिए जा रहा है। थोड़ी दूर चलने के बाद रात हो गई और अवसर पाकर लुटेरे ने कटार दिखाकर सेठ से ऊंट को बैठाने के लिए कहा और सारी धन-संपत्ति ले ली और जाते-जाते वह सेठ जी की गर्दन भी काट गया। रात्रि में उस निर्जन वन में अपने बच्चे को साथ लिए सेठानी जोर जोर से रोते हुवे बाबा रामदेवजी को पुकारने लगी। 

अबला की पुकार सुनकर रामदेवजी अपने नीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां पहुंचे। आते ही रामदेवजी ने उससे अपने पति का कटा हुआ सर गर्दन से जोड़ने को कहा। सेठानी ने जब ऐसा किया तो सर जुड़ गया और उसी पल सेठजी जीवित हो गया। बाबा का यह चमत्कार देख दोनों सेठ-सेठानी बाबा के चरणों में गिर पड़े। बाबा उनको 'सदा सुखमय' जीवन का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। तब उसी स्थल पर दलाजी ने बाबा का एक भव्य मंदिर बनवाया।  

सिरोही निवासी एक अंधे साधु को परचा - एक अंधा साधु सिरोही से कुछ अन्य लोगों के साथ रुणिचा में बाबा के दर्शन करने के लिए निकला। सभी पैदल चलकर रुणिचा आ रहे थे। रास्ते में थक जाने के कारण अंधे साधु के साथ सभी लोग एक गांव में पहुंचकर रात्रि विश्राम करने के लिए रुक गए। आधी रात को जागकर सभी लोग अंधे साधु को वहीं छोड़कर चले गए। जब अंधा साधु जागा तो वहां पर कोई नहीं मिला और इधर-उधर भटकने के पश्चात वह एक खेजड़ी के पास बैठकर रोने लगा। उसे अपने अंधेपन पर इतना दुःख कभी नहीं हुआ था जितना उस दिन हो रहा था। रामदेवजी अपने भक्त के दुःख से दुखी हो गए और उसके पास पहुंचे कर उसके सिर पर हाथ रखा जिससे उसकी नेत्रों की ज्योति आ गयी, उसके बाबा के दर्शन किए और नतमस्तक हो गया। उस दिन के बाद वह साधु वहीं खेजड़ी के पास रहने लगा और वहाँ रामदेवजी के चरण (पघलिए) स्थापित करके उनकी पूजा करने लगा। अंत में वहीं पर उस साधु ने समाधि ली थी।

      

        

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