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पर्युषण पर्व | जैन समाज का पर्युषण पर्व क्यों और कैसे मनाया जाता हैं ?

दुनिया के सबसे प्राचीन धर्मो मे से एक जैन धर्म भी है जिसको श्रमणों का धर्म भी कहते है। जैन धर्म के प्रथम संस्थापक ऋषभ देव जी है, जो भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत के पिता थे। जैन धर्म में अब तक कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं। जैन संस्कृति में जितने भी पर्व मनाए जाते हैं, उन सब मे कठोर तप एवं साधना का निवेश होता है। पर्युषण पर्व जैन समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है। जिसका मुख्य उद्देश्य − आत्मा कि शुधि और धर्म की आराधना करना है। इसका शाब्दिक अर्थ - परि+उषण है , परि यानि चारो तरफ़् से और उष्ण का मतलब बुरे कर्मो / विचारो का नाश करना है। 

यह पर्व भाद्रपद कृष्ण की द्वादशी से प्रारम्भ हो कर भाद्रपद शुक्ला पंचमी को पूर्ण होता है। श्वेतांबर और दिगंबर दोनो ही समाज के लोग पर्युषण पर्व मनाते हैं। श्वेतांबर के पर्युषण समाप्त होने के बाद दिगंबर समाज के पर्युषण प्रारंभ होते हैं। श्वेतांबर समाज आठ दिन तक इस पर्व को मनाता हैं जिसे 'अष्टान्हिका' कहा जाता हैं जबकि दिगंबर समाज के अनुयायी दस दिनों तक पर्युषण पर्व को मनाते हैं जिसे 'दसलक्षण' कहा जाता हैं। 

यह पर्व लगातार दस दिनों तक चलता हैं जैन धर्म के अनुयायी उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम अकिंचन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य के द्वारा आत्मसाधना करते हैं | इस पर्व को मनाने के दौरान लोग विभिन्न आसन, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि जैसी साधना तप-जप और निर्जला उपवास के साथ जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करते हैं। 

इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है, इस पर्व की मुख्य बातें जैन धर्म के पांच सिद्धांतों पर आधारित हैं जैसे कि - 
1. अहिंसा यानी कि किसी को भी कष्ट ना पहुंचाना 
2. सत्य यानी हमेशा सच बोलना 
3. अस्तेय यानी ​कि चोरी ना करना 
4. ब्रह्मचर्य यानी कि भोग विलास से दूर रहना 
5. अपरिग्रह यानी कि जरूरत से अधिक धन एकत्रित ना करना।  
 



  

Paryushan Parv

पर्युषण, जैन अनुयायियों के आध्यात्मिक पर्वों में अग्रगण्य और जैन एकता का प्रतीक पर्व है। मानव की सोई हुई अन्त: चेतना को जागृत करने, आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार, सामाजिक सद्भावना एवं सर्व धर्म समभाव के कथन को बल प्रदान करने के लिए पर्यूषण पर्व मनाया जाता है। पर्युषण का आमतौर पर यह अर्थ होता हैं कि मन के सभी विकारों का खात्मा करना। यानी कि मन में उठने वाले सभी प्रकार के बुरे विचार को इस पर्व के दौरान खत्म करने का व्रत ही पर्युषण महापर्व हैं। वही इन विकारों पर जीत हासिल कर शांति और पवित्रता के मार्ग की ओर खुद को ले जाना होता हैं। साथ ही यह पर्व सिखाता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की प्राप्ति में ज्ञान व भक्ति के साथ सद्भावना का होना भी जरुरी होता है। 

इस समय जैन साधु व साध्वी किसी एक जगह पर स्थिर होकर तप, प्रवचन तथा जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में ध्यान लगाते हैं, जबकि आम धर्मानुयायी त्याग-प्रत्याख्यान, पौषध सामायिक, स्वाध्याय, जप-तप, आगम, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा, संयम और उपवास के साथ जैन मुनियों की सेवा में दिन व्यतीत करते हैं। 

पर्युषण पर्व के अन्तिम दिन संवत्सरी जिसे विश्व-मैत्री दिवस भी कहा जाता है। संवत्सरी पर्व पर्युषण मे सबसे अधिक मत्वपुर्ण होता है। इस दिन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है जिसमे पुरे साल भर में किए गए पापों का प्रायश्चित्त करते हैं। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के बीच में ही सभी ८४ लाख जीव योनी से क्षमा याचना की जाती है। यहाँ क्षमा याचना सभी जीवों से वैर भाव मिटा कर मैत्री करने के लिए होती है। क्षमा याचना शुद्ध ह्रदय से करनी चहिये है तथा दूसरों को क्षमादान देना सबसे अहम् भाग होता है। पर्व के अंतिम दिन दिगंबर 'उत्तम क्षमा' तो श्वेतांबर 'मिच्छामि दुक्कड़म्' कहते हुए सभी से क्षमा माँगते हैं। जैन धर्म मे 'मिच्छामी' का अर्थ क्षमा करना और 'दुक्कड़म्' का अर्थ गलतियों से है अर्थात मेरे द्वारा जाने-अनजाने में की गईं गलतियों के लिए मुझे क्षमा करना होता है । 

भगवान महावीर स्वामी जी पंक्ति याद आती है -  
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे।  
मित्तिमे सव्व भुएस्‌ वैरं ममझं न केणई।  
- अर्थात सभी प्राणियों के साथ मेरी मित्रता है, किसी के साथ मेरी दुश्मनी नहीं है। क्षमा माँगने से ज्यादा जरूरी क्षमा करना होता है।  
यह वाक्य साधारण सा लगता है, मगर इसका अर्थ बहुत विशेष है।



  

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