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भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य का गुरु से संबंध को सांसारिक संबंध से भी बढ़कर बताया गया है। कबीर दास ने तो यहां तक माना है कि गुरु मिला तो सब मिला, नहीं तो मिला न कोय।
मात पिता सुत बान्धवा ये तो घर घर होय।।
"गुरु" का न होना लघु होना है। जीवन में गुरु के महत्व को इसी बात से समझा जा सकता है। अर्थात "जो अपने कर्म, ज्ञान एवं व्यवहार से हमारी लघुता मिटा दे वही गुरु है।" इस परिभाषा की दृष्टि से हनुमानजी एक महान गुरु हैं।
हमारे जीवन से लघुता को मिटाने के लिये गुरु हमें तीन चीज देते हैं। वह तीन चीज है दीक्षा, मंत्र एवं शिक्षा। एक गुरु के रूप में हनुमानजी द्वारा दिए जाने वाली दीक्षा, मंत्र एवं शिक्षा पर विचार करते हैं।
हनुमानजी की दीक्षा :
कुमति का वरण एवं सुमति से दूरी ही जीवन में आनंद के अभाव का कारण है। यदि हम अपने आचरण में कुमति का निवारण करके सुमति का वरण कर पाए तो जीवन आनंदमय हो जायेगा। हनुमानजी स्वयं इस दीक्षा को आत्मसात किये हुए हैं एवं गुरु के रूप में हमें भी यही दीक्षा देते हैं। श्रीहनुमान चालीसा में उन्हें इसीलिए कहा गया है;
*महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवारि सुमति के संगी।*
*हनुमानजी का मंत्र*
हनुमानजी दीक्षा में सबको एक अति प्रभावी गुरु मंत्र देते हैं। वह मंत्र है श्रीराम नाम। हनुमानजी का मंत्र कोई औपचारिक मंत्र नहीं है। वह हनुमानजी द्वारा स्वयं सिध्द किया हुआ मंत्र है। हनुमानजी का अपने मंत्र के प्रभाव पर पूर्ण विश्वास है। हनुमानजी की एक और विशेषता है कि वे सबको जो मंत्र देते हैं, उसे स्वयं भी निरन्तर जाप करते हैं। और यदि वही मंत्र किसी और द्वारा जाप किया जा रहा हो तो वे रसिया की तरह सुनने लगते हैं।
"राम नाम सुनबे को रसिया"।
हनुमानजी द्वारा दिया यह मंत्र अतिप्रभावी है। जिसने भी इसकी साधना किया उसका उद्धार हो गया। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण विभीषण है। जो इस मंत्र की साधना से लंकापति हो गए।
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेश्वर भये सब जग जाना।
हनुमानजी की शिक्षा
हनुमानजी एक ऐसे गुरु हैं जो प्रवचनों से नहीं बल्कि अपने आचरण एवं व्यवहार से हमें शिक्षा देते हैं। हनुमानजी का सम्पूर्ण जीवन चरित्र एक विद्यालय की तरह है। जिससे हर कोई जीवन का पाठ सरल रूप से सीख सकता है। हनुमानजी की विशेषता यह है कि उनकी कथनी एवं करनी में कोई अंतर नहीं है। वे अपने आचरण में प्रयोग करके स्वयं के अनुभव से शिक्षा देते हैं। कर्म, ज्ञान एवं भक्ति की प्रायोगिक शिक्षा के साथ - साथ व्यक्ति की पहचान, लोकव्यवहार, निरभिमानी, उपयोगी, सर्वप्रिय, सर्वकल्याणकारी एवं अजातशत्रु बने रहने की शिक्षा भी हनुमानजी अपने अनुभव से देते हैं।
गुरु के रूप में हनुमानजी की महिमा :
गुरु की एक विशिष्ट महिमा है। वे अपने शिष्य के उत्थान में स्वयं का उत्थान समझते हैं। इस दृष्टि से हनुमानजी सृष्टि के श्रेष्ठ एवं परोपकारी गुरु हैं। हनुमानजी एक ऐसे गुरु हैं जो स्वयं परोपकार करते हैं तथा अपने व्यवहार से सबको परोपकार की शिक्षा देते हैं। वे सबके उत्थान में सहायक बनते हैं। और बदले में किसी से कभी कुछ नहीं लेते। हनुमानजी से ही उपकार प्राप्त करके सुग्रीव को मान - सम्मान के साथ किष्किन्धा का राज्य मिल गया।
"तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा, राम मिलाई राज पद दीन्हा।"
इसीलिये तुलसीदास जी हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं तो यही कहते हैं कि हे हनुमानजी! मुझ पर गुरुदेव के समान कृपा करो।
"जै जै जै हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।"
लेखक - डॉ आदित्य शुक्ल जी,
व्यक्तित्व निर्माण में श्रीहनुमान जी की भूमिका विषय के अधिकारी विद्वान एवं प्रभावी वक्ता
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