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जानें क्यों मनाया जाता है छठ पूजा का त्योहार, किसने शुरू की परंपरा?

छठ पूजा साल में दो बार होती है एक चैत मास में और दुसरा कार्तिक मास शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि, पंचमी तिथि, षष्ठी तिथि और सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है| चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को 'चैती छठ' और कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को 'कार्तिकी छठ' कहा जाता है। चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व को छठ पर्व, छठ या षष्‍ठी पूजा, छठी माई पूजा, डाला छठऔर सूर्य षष्ठी पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। 

सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। कहा जाता है यह पर्व बिहारीयों का सबसे बड़ा पर्व है ये उनकी संस्कृति है जिसे बड़े धुम धाम से मनाया जाता है। ये पर्व जो मुख्यः रुप से ॠषियो द्वारा लिखी गई ऋग्वेद मे सूर्य पूजन, उषा पूजन और आर्य परंपरा के अनुसार बिहार मे बड़े हर्ष और उल्लास से मनाया जाता हैं।  

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार षष्ठी देवी को ब्रह्मा जी की मानस पुत्री भी कहा गया है। जिन्हे माँ दुर्गा के छठे रूप कात्यायनी देवी (जिनकी पूजा नवरात्रि की षष्ठी तिथि पर होती है) को भी छठ माता का ही रूप माना जाता है। छठ मइया को संतान देने वाली माता के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि छठ पर्व का व्रत रखने से नि:संतानों को संतान भी प्राप्त हो जाती है।

  

छठ पूजा

छठ पूजा के तथ्य -

छठ पूजा सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु और उनकी बहन छठी म‌इया को समर्पित है ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन देने के लिए धन्यवाद और शुभकामनाएं देने का अनुरोध किया जाए। छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला लोक पर्व है, जिसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होती है और समापन कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होता है। जिसे नहाय खाय, लोहंडा या खरना, संध्या अर्ध्य और उषा अर्ध्य के रूप में मनाया जाता है। छठ व्रत के अनुष्ठान एक कठिन तपस्या की तरह है। यह छठ व्रत अधिकतर महिलाओं द्वारा किया जाता है पर कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिलाओं को "परवैतिन" कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में पवित्र स्नान, उपवास और निर्जल (बिना पानी पिए), लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, प्रसाद (प्रार्थना प्रसाद) और अरख देना शामिल है। व्रती को भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग करना होता है। इस पर्व के लिए व्रति को फर्श पर एक कम्बल या चादर के सहारे ही रात बितानी होती हैं। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नये कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की गयी होती है व्रति को ऐसे कपड़े पहनना अनिवार्य होता है। इसलिए महिलाएँ साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ पूजा करते हैं।  

नहाय खाय (पहला दिन) -  
छठ पर्व के पहले दिन को नहाय खाय कहा जाता है। इस दिन स्नान के बाद घर की साफ़-सफाई करके व्रती शाकाहारी भोजन ग्रहण कर छठ व्रत की शुरुवात करते हैं। इस दिन को कद्दू-भात भी कहा जाता है। जिसमे व्रत के दौरान चावल, चने की दाल और कद्दू, घिया या लौकी की सब्जी बनाकर प्रसाद रूप में ग्रहण करते है। खाना कांसे या मिटटी के बर्तन में पकाया जाता है। खाना पकाने के लिए आम की लकड़ी और मिटटी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है। जब खाना बन जाता है तो सर्वप्रथम व्रती खाना खाते है उसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य खाना खाते है ।  

 

लोहंडा या खरना (दूसरा दिन) -  
लोहंडा या खरना, छठ पूजा का दूसरा दिन है। खरना का मतलब पूरे दिन के उपवास से होता है। इस दिन व्रत रखने वाला व्यक्ति जल की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करता है और शाम को भोजन करता है। संध्या के समय खरना का प्रसाद चावल को गन्ने के रस में बनाकर या चावल का पिठ्ठा और गुड़ की खीर, घी लगी हुई रोटी और फलों का सेवन करते हैं, उसके बाद घर के बाकि सदस्यों को इसे प्रसाद के तौर पर दिया जाता है। इसके बाद अगले 36 घंटों के लिए व्रती निर्जला व्रत रखते है।  

संध्या अर्घ्य (तीसरा दिन) -  
छठ पर्व के तीसरे दिन संध्या के समय सूर्य देव को अरख दिया जाता है। व्रत रखने वाले शाम को बाँस की टोकरी (जिसे डलिया और दउरा भी कहते है) में फलों, ठेकुआ, चावल के लड्डू (जिसे कचवनिया भी कहते है), चीनी का सांचा आदि से अरख का सूप सजाते है और देवकारी में रख दिया जाता है। पूजा - अर्चना करने के बाद शाम को वह दउरा घर के पुरुष अपने हाथो से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो इसलिए इसे सर के ऊपर की तरफ रखते है। छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में महिलाये छठ का गीत गाते हुए जाती है |  

नदी या तालाब के किनारे जाकर महिलाये घर के किसी सदस्य द्वारा बनाये गए चबूतरे पर बैठती है। नदी से मिटटी निकाल कर छठ माता का जो चौरा बना रहता है उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढाते है और दीप जलाते है। उसके बाद सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े होकर सूर्य पूजा करते है और अरख देते हैं। अरख के समय सूर्य देव को जल और दूध चढ़ाया जाता है और डूबते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते है। इसके बाद प्रसाद भरे सूप से छठी मैया की पूजा की जाती है। सूर्य देव की उपासना के बाद रात्रि में छठी माता के गीत गाए जाते हैं और व्रत कथा सुनी जाती है।  
 

उषा अर्घ्य (चौथा दिन) -  
छठ पर्व के अंतिम दिन व्रती को सूर्य उदय के पहले से उसी तालाब, नहर, नदी के घाट पर पहुंचकर उगते सूर्य को अरख देना होता हैं। व्रती को पूरब दिशा की ओर मुंहकर पानी में खड़े हो कर सूर्योपासना करनी चाहिए, उगते हुए सूर्य को अरख देकर अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए भगवान् सूर्य से प्रार्थना की जाती है। इसके बाद छठ माता से संतान की रक्षा और पूरे परिवार की सुख शांति का वर मांगा जाता है। इसके बाद व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको "ब्रह्म बाबा" कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के बाद व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर और थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत को पूरा करती हैं, जिसे पारण या परना कहा जाता है। व्रती खरना के दिन से आज तक निर्जला उपवासोपरान्त आज सुबह ही नमकयुक्त भोजन कर सकते हैं।  

छठ पूजा विधि -  
● बांस की 3 बड़ी टोकरी, बांस या पीतल के बने 3 सूप, थाली और ग्लास  
● चावल, लाल सिंदूर, दीपक, नारियल, हल्दी, गन्ना, सुथनी, सब्जी, दूध और शकरकंदी  
● नाशपती, बड़ा नींबू, शहद, पान, साबुत सुपारी, कैराव, कपूर, चंदन और मिठाई  
● प्रसाद के रूप में ठेकुआ, मालपुआ, खीर-पुड़ी, सूजी का हलवा, चावल के बने लड्डू  

अरख देने की विधि -  
बांस की टोकरी में पूजा की सामग्री रखें। सूर्य को अर्घ्य देते समय सारा प्रसाद सूप में रखें और सूप में ही दीपक जलाएँ। फिर नदी या तालाब में उतरकर सूर्य देव को अरख देते है। उसके बाद छठ माता की पूजा करते है |

  

Chhath Puja

छठ पूजा से जुड़ी पौराणिक कथा -

छठ पर्व पर छठी माता की पूजा की जाती है, जिसका उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी मिलता है। कहा जाता है कि प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र राजा प्रियव्रत को कोई संतान नहीं थी। इस वजह से वे दुःखी रहते थे। उस राजा को महर्षि कश्यप ने पुत्रयेष्टि यज्ञ करने की सलाह दी। महर्षि की आज्ञा अनुसार राजा ने यज्ञ कराया और यज्ञाहुति के लिए बनायी गयी खीर दी। यज्ञ सफल हुआ और इसके प्रभाव से महारानी गर्भवती हो गयी। महारानी मालिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन दुर्भाग्य से वह शिशु मृत पैदा हुआ। इस बात से राजा और अन्य परिजन बेहद दुःखी थे। जब राजा मृत बच्चे को दफनाने की तैयारी कर रहे थे, तभी आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान धरती पर उतरा जिसमें माता षष्ठी विराजमान थीं। राजा प्रियव्रत ने उनसे प्रार्थना करी और उनका परिचय पूछा, तब उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि - "मैं परम् पिता ब्रह्मा जी की मानस पुत्री षष्ठी देवी हूं। मैं विश्व के सभी बालकों की रक्षा करती हूं और निःसंतानों को संतान प्राप्ति का वरदान देती हूं।”  

इसके बाद देवी ने मृत शिशु को आशीर्वाद देते हुए उस मृत शरीर को स्पर्श किया, जिससे वह जीवित हो गया। देवी की इस कृपा से राजा और परिवार जन बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने षष्ठी देवी की आराधना की। इसके बाद से राजा ने इस पर्व की परंपरा अपने राज्‍य में घोषित कर दी। ऐसी मान्‍यता है कि इसके बाद ही धीरे-धीरे हर ओर इस पूजा का प्रसार हो गया।  

छठ पूजा का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व -  
छठ पूजा धार्मिक और सांस्कृतिक आस्था का लोकपर्व है। यही एक मात्र ऐसा त्योहार है जिसमें सूर्य देव का पूजन कर उन्हें अरख दिया जाता है। हिन्दू धर्म में सूर्य की उपासना का विशेष महत्व है। वेदों में सूर्य देव को जगत की आत्मा कहा जाता है क्यूंकि सूर्य के प्रकाश में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पाई जाती है। सूर्य के प्रभाव से व्यक्ति को आरोग्य, तेज और आत्मविश्वास की प्राप्ति होती है। वैदिक ज्योतिष में सूर्य को आत्मा, पिता, पूर्वज, मान-सम्मान और उच्च सरकारी सेवा का कारक कहा गया है।  

छठ व्रत के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं; उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये, तब श्री कृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिला। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का सम्बन्ध भाई-बहन के जैसा है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्यदेव ने ही की थी। छठ पूजा पर सूर्य देव और छठी माता के पूजन से व्यक्ति को संतान, सुख और मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। सांस्कृतिक रूप से छठ पर्व की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह पर्व सादगी, पवित्रता और प्रकृति के प्रति प्रेम को दर्शाता है ।

   रामायण तथ्य -  
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय तथा 14 वर्ष वनवास पूरा करने के बाद अयोध्या लौटे तब रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला किया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया। मुग्दल ऋषि ने माँ सीता पर गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने को कहा। माता सीता ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान किया था। उसके बाद रामराज्य की स्थापना कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।  

महाभारत तथ्य -  
हिंदू मान्यता के मुताबिक छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घण्टों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्यदेव आराधना कर अरख देते थे। सूर्यदेव की कृपा से ही वे महान योद्धा बने थे। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।  

एक किवदंती के मुताबिक द्रौपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। जब पांडव सारा राजपाठ जुए में हार गए, तब द्रोपदी ने छठ व्रत रखा था। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं।  

छठ पर्व का वैज्ञानिक महत्व -  
छठ पर्व को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो षष्ठी तिथि (छठ) को खगोलीय परिवर्तन होता है, इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें (Ultra Violet Rays) पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं इस कारण इसके सम्भावित कुप्रभावों से मानव की यथासम्भव रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। पर्व पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा सम्भव है। पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिलता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन उपरान्त आती है उस दिन छठ पर्व ही होता है।

  

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