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"भेटी लागी जीवा लागलीसे आस, पाहे रात्रंदिवस वाट तुझी।।"
'हे प्रभु तुझसे मिलने की आस लगी है, अब तो रात और दिन उसी के इंतजार में निकल रहे हैं।' संत तुकाराम की यह अभंगवाणी दर्शाती है कि जिस तरह चातक पक्षी बारिश की एक बूंद के लिए तरसता है उसी तरह सभी वारकरी अपने विठू माऊली यानी पंढरीनाथ को मिलने के लिए तरसते हैं।
आषाढी एकादशी (जिस को देव शयनी एकादशी भी कहते है) के दिन महाराष्ट्र के चंद्रभागा नदी के तट पर बसे हुए पंढरपुर में यह महायात्रा होती है। इस यात्रा में महाराष्ट्र के कोने-कोने से और बाहर से भी लोग आते हैं। जिसके मन में भक्ति भाव हो वह हर जाती या धर्म का इंसान इस यात्रा का हिस्सा बन सकता है।
पंढरपुर के भगवान विट्ठलनाथ से मिलने के लिए लोग अपने घर से पैदल यात्रा करने के लिए निकलते हैं उसे 'वारी' कहते हैं और वारी करने वालों को 'वारकरी' । प्यासे को पानी पिलाना, भूखे को भोजन देना, पर - स्त्री को माता सामान देखना, किसी अन्य के लिए अपने मन में कोई मत्सर नहीं रखना, उनके कल्याण के लिए प्रार्थना करना, संतों पर प्रेम करना, गीता भागवत जैसे ग्रंथों को पढना, अपना हर काम भगवान के लिए करना, गृहस्थाश्रम का धर्म पूर्वक पालन करना, भगवत धर्म के मार्ग पर चलना ऐसा भक्तिमय जीवन यह वारकरी व्यतीत करते हैं।
एकादशी के लगभग २०-२५ दिन पहले से यह वारकरी अपनी अपनी जगह से छोटे- बड़े समूह बनाकर निकलते हैं उसे 'दिंडी' कहते हैं । अनेक संतों की पालखी निकलती है जिसमें उनके पद-चिन्ह होते हैं, उसकी सविस्तर पूजा करके यह पालखी अलग-अलग तिथि को अपनी अपनी जगह से निकलती है उसे 'पालखी प्रस्थान' कहते हैं।
संत तुकाराम महाराज की देहू से, संत एकनाथ महाराज की पैठन से, संत ज्ञानेश्वर महाराज आलंदी, पुणे से, संत सोपानकाका सासवड पुणे से, संत चांगवटेश्वर इंदापुर, संत नामदेव नरसी हिंगोली, देवी रुक्मणी कौंढण्यपूर जि. अमरावती, आदिशक्ति संत मुक्ताबाई जलगांव, और संत निवृत्तीनाथ त्रंबकेश्वर से पालखी निकलती है। सभी दिंडियां पालखी प्रस्थान से पहले उन जगहों पर जाकर मिलती है और फिर पालखी के साथ वहां से रवाना होते हैं।
इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण है संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर इनकी पालखी। पालखी प्रस्थान के समय उन मंदिरों को नई नवेली दुल्हन की तरह सजाया जाता है। लाखों की तादाद में वहां जनसमुदाय होता है।
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ऐसी कथा है कि एक समय में आळंदी से संत ज्ञानेश्वर महाराज की पालखी प्रस्थान के समय, मंदिर के शिखर का कलश हिलता था, जैसे वह पालखी के प्रस्थान करने का संकेत दे रहा हो। सिर्फ इसी वक्त यह दृश्य देखने को मिलता था, और जमीं-आसमां, विट्ठल-विट्ठल नाम से गुंज उठता था।
लगभग १००० सालों या शायद उससे भी पुरानी यह प्रथा पूरा वातावरण विट्ठल मय कर जाती है। अबोध-वृद्ध, छोटे-बड़े सभी 'ज्ञानोबा तुकोबा', 'माऊली-माऊली', 'विट्ठल विट्ठल जय हरी विठ्ठल' का जयघोष करते हुए पखावज, टाल, मृदंग के ताल पर नाचते गाते लाखों लोग अपनी विठ्ठु माऊली से मिलने आगे बढ़ते जाते हैं। किसी के हाथ में केसरी झंडा, किसी के सिर पर तुलसी वृंदावन, तो कोई तुकाराम गाथा लेकर चलते है। बारिश पानी उतार-चढ़ाव कुछ भी ना देखते हुए यह सभी वारकरी प्रभु भक्ति में लीन अपने अपने भावों से ओतप्रोत, आनंदाश्रु से भरे अपने प्रभु से मिलने की आस लिए बढ़ते ही जाते हैं। आसपास का पूरा वातावरण विट्ठल मय, भक्ति मय करते जाते हैं। ऐसे भक्तों का तो प्रभु भी बड़े बेसब्री से इंतजार करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक मां अपने बच्चों का....
।। विठू माऊली तू माऊली जगाची, माऊलीत मूर्ति विठ्ठलाची ।।
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