माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को जया एकादशी के नाम से जाना जाता है जया एकादशी के दिन व्रत रखने से एवं भगवान विष्णु की पूजा करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मृत्यु के उपरांत स्वर्ग की प्राप्ति के लिए जया एकादशी का व्रत एवं जया एकादशी व्रत कथा का पाठ जरूर करना चाहिए। मनुष्य के द्वारा जीवन काल में अनेक पाप हो जाते हैं तथा उन्हीं पापों की सजा से मुक्ति प्राप्त करने के लिए जया एकादशी का व्रत किया जाता है। इस व्रत को करने से हर तरह के पाप यहां तक की हत्या जैसे दोष से भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार प्रेत योनि से मुक्ति पाकर स्वर्ग की प्राप्ति की कामना से भी इस व्रत को किया जाता है। जया एकादशी को दक्षिण भारत के कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के कुछ राज्यों में 'भूमि एकादशी' या 'भीष्म एकादशी' के रूप में भी जाना जाता है।
जया एकादशी की व्रत कथा - एक बार नंदन वन में उत्सव रखा गया जिसमें सभी देवता एवं ऋषि मुनि उपस्थित थे। चारों तरफ किसी उत्साह एवं प्रसन्नता का माहौल था। गांधर्व गीत गा रहे थे और गंधर्व कन्याएं नृत्य कर रही थीं। वहीं पुष्पवती नामक गंधर्व कन्या ने माल्यवान नामक गंधर्व को देखा और उस पर आसक्त होकर अपने हाव-भाव से उसे रिझाने का प्रयास करने लगी। माल्यवान भी उस गंधर्व कन्या पर मुग्ध होकर गन्धर्व भी अपने गायन का सुर-ताल भूल गया। इससे संगीत की लय टूट गई और समारोह का सारा आनंद बिगड़ गया। सभा में उपस्थित देवगणों को यह बहुत बुरा लगा। यह देखकर देव इंद्र भी क्रोधित हुए। संगीत एक पवित्र साधना है। इस साधना को भ्रष्ट करना पाप है, अतः क्रोधवश इंद्र ने पुष्पवती तथा माल्यवान को श्राप दे दिया - कि उन्हें मृत्युलोक में जाना होगा। उन्होंने पुष्पवती एवं माल्यवान को कहा कि गुरुजनों की सभा में इस प्रकार से असंयमित प्रदर्शन करके तुमने गुरुजनों का भी अपमान किया है, इसलिए इंद्रलोक में तुम्हारा रहना अब वर्जित है, अब तुम प्रेत योनि में जाकर असंयमी जीवन व्यतीत करना होगा।
इस प्रकार के श्राप को सुनकर वे अत्यंत दुखी हुए और हिमालय पर्वत पर प्रेत योनि में कष्ट सहित जीवन यापन करने लगे। उन्हें गंध, रस, स्पर्श आदि का तनिक भी बोध नहीं था। रात-दिन में उन्हें एक क्षण के लिए भी नींद नहीं आती थी। उस स्थान का वातावरण जीवन के अनुकूल नहीं था, ठंड होने के कारण वे बहुत कष्ट पाते थे। उन्हें भोजन भी सरलता से प्राप्त नहीं हो पाता था। इस तरह वे अत्यधिक कष्ट पूर्ण जीवन बिताने लगे।श्री हरी की कृपा से एक बार माघ के शुक्ल पक्ष की जया एकादशी के दिन इन दोनों ने कुछ भी भोजन नहीं किया और न ही कोई अधर्म किया। उस दिन मात्र फल-फूल खाकर ही दिन व्यतीत किया और अत्यधिक कष्ट के साथ पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उस दिन सूर्य भगवान अस्तांचल को जा रहे थे तो रात भी कठिनता से काटी।
इस प्रकार अनजाने में ही दोनों से जया एकादशी का व्रत पूर्ण हो गया। दूसरे दिन प्रातः काल होते ही प्रभु की कृपा से दोनों को प्रेत योनि से मुक्ति मिल गई और पुनः वे अत्यंत सुंदर अप्सरा और गंधर्व की देह प्राप्त करके तथा सुंदर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत होकर स्वर्ग लोक को चले गए। उस समय आकाश में देवताओं ने भी उन पर पुष्पों की वर्षा की। स्वर्ग लोक में जाकर इन दोनों ने देव इंद्र को प्रणाम किया। उन्हें उनके पूर्व रूप में देखकर इंद्र को भी बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा- तुम्हें प्रेत योनि से किस प्रकार मुक्ति मिली, उसका पूरा वृत्तांत मुझे बताओ। देवेंद्र की बात सुन माल्यवान ने कहा - हे देवताओं के राजा इंद्र! श्रीहरि की कृपा तथा जया एकादशी के व्रत के पुण्य से हमें प्रेत योनि से मुक्ति मिली है।इंद्र ने कहा - हे माल्यवान! एकादशी व्रत करने से तथा भगवान श्रीहरि की कृपा से तुम दोनों प्रेत योनि से मुक्त होकर पवित्र हो गए हो तथा इसलिए हम देवताओं के लिए भी वंदनीय हो गए हो, क्योंकि शिव तथा विष्णु-भक्त हम देवताओं के लिए भी वंदना करने योग्य हैं, अब आप प्रसन्नतापूर्वक देवलोक में निवास कर सकते हैं। इस प्रकार जया एकादशी के उपवास से प्रेत योनि से सहज ही मुक्ति मिल जाती है। जो मनुष्य इस एकादशी का व्रत कर लेता है, उसने मानो सभी तप, यज्ञ, दान कर लिए हैं एवं इसी के परिणाम से उसे मृत्यु के उपरांत स्वर्ग में स्थान मिलता है ।
जया एकादशी का व्रत कैसे करें -
अन्य एकादशी की तरह इस व्रत को भी निर्जल एवं फलाहारी दोनों ही प्रकार से रख सकते हैं परंतु निर्जला व्रत रखना बहुत कठिन होता है इसलिए साधारणतया एकादशी के व्रत के दिन फलाहारी व्रत रखा जाता है जिसमें दिन में एक बार फलाहार व जल ग्रहण किया जाता है। जो व्यक्ति एकादशी का व्रत नहीं रख सकते हैं उन्हें इस दिन सात्विक भोजन का सेवन ही करना चाहिए। एकादशी के दिन चावल का प्रयोग वर्जित है इसलिए इस दिन घर में चावल नहीं पकाए जाते हैं। हिंदू धर्म में इस व्रत का बहुत महत्व है एकादशी व्रत के दिन प्रातः काल स्नान करके विष्णु भगवान की मूर्ति स्थापित करें तथा संकल्प लेकर उनकी पूजा करें। भगवान विष्णु की पूजा तुलसी दल, पुष्प, जल, रोली,अक्षत तिल आदि सामग्री से की जाती है। पूजा के बाद नारायण स्त्रोत एवं विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करने से विष्णु भगवान प्रसन्न होते हैं। कुछ स्थानों पर भगवान श्री हरी के साथ लक्ष्मी जी की पूजा भी की जाती है। पूजा के बाद हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करें ।
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