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नीम की डाली / टहनी से बड़ी (सातुड़ी) तीज की पूजा क्यों की जाती है ? | सातुड़ी तीज

हिन्दू धर्म में त्योहारों का बड़ा महत्व है। उसमे भी सावन का महीना मस्ती, प्रेम और उत्साह का महीना माना जाता है। इस महीने में महिलाओं का सौंधा-सा पर्व सातुड़ी तीज रक्षाबंधन के तीसरे दिन के बाद आती है। वास्तव में इस मौसम में तीज व्रत मनाने का अवसर तीन बार आता है। हरियाली तीज, सातुड़ी तीज व हरतालिका तीज जिसे हर प्रान्त के लोग अपने अपने तरीके से इस त्योहार को धूमधाम से मनाते है। सातुड़ी तीज को कजली तीज, बड़ी तीज और बूढ़ी तीज भी कहते है।

हिन्‍दू कैलेंडर के अनुसार भाद्रपद यानी कि भादो माह के कृष्‍ण पक्ष की तृतीया को बड़ी तीज मनाई जाती है। बड़ी तीज का उत्सव भारत के कई भागों में मनाया जाता है, लेकिन राजस्थान, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में इस त्योहार को खूब धूमधाम से मनाया जाता है।

हम सब के मन में सवाल होता है कि तीज क्यू मानते है ?

सुहागिन महिलाएं अखंड सौभाग्य और पति की लंबी आयु के लिए इस दिन व्रत रखकर पूजा अर्चना करती हैं और अविवाहित लड़कियां मनपसंद जीवनसाथी के लिए व्रत तथा पूजा करती हैं। इसके लिए तीज का त्योहार मनाया जाता है | इस व्रत को कई महिलाये निर्जला भी रखती है।

अब आप सोच रहे होंगे की तीज के दिन नीम की डाली (टहनी) की पूजा क्यू की जाती है ?

जैसे की हम सबको विदित है कि सुबह के समय पेड़ो की पूजा करना शुभ माना जाता है और शास्त्रों में भी लिखा है की १२ बजे के बाद या शाम के समय पेड़ो की पूजा नहीं की जाती है क्यूंकि तब पेड़ो पर भूतो का वास होता है। तीज की पूजा संध्या काल में होती है। इसके लिए नीम के पेड़ से १ डाली / टहनी सुबह ही तोड़ कर ले आते है | फिर घर पर या मंदिर या किसी भी स्वच्छ स्थान पर नीम की डाली को पानी, कच्चा दूध और मिट्टी के साथ गोल घेरा बनाकर रोप देते है जहां पर सब महिलाये पूजा कर सके।

 

   

इसकी एक पौराणिक कथा भी है । एक साहूकार के सात बेटे थे। सातुड़ी तीज के दिन उसकी बड़ी बहू नीम के पेड़ की पूजा कर रही थी कि तभी उसके पति का देहांत हो गया। इसी तरह से एक-एक करके साहूकार के 6 बेटे गुजर गए। फिर सातवें बेटे की शादी होती है तो साहूकार और उसकी पत्नी बहुत डरे हुए रहते हैं। तीज के दिन नई बहू कहती है कि वो नीम के पेड़ की जगह उसकी टहनी तोड़कर पूजा करेगी। उसके पूजा करने के दौरान ही मृत बेटे लौट आते हैं लेकिन वे किसी को दिखाई नहीं देते और सिर्फ नई बहू ही उन्हें देख पाती है| वो तुरंत अपनी जेठानियों को बुलाती है और कहती है कि वे आएं और साथ में मिलकर पूजा करें। जेठानियां कहती हैं कि वे पूजा कैसे कर सकती हैं, उनके पति जिन्दा नहीं है। फिर नई बहु उनको विश्वास दिलाती है, तब वे सभी साथ आकर पूजा करती हैं और उनके पति सामने प्रकट हो जाते हैं। तभी से इस दिन नीम की टहनी की पूजा की जाने लगी ताकि पति की लंबी उम्र बनी रहे।

कजरी तीज से जुड़ी एक रोचक कहानी भी और है जिस वजह से आज के दिन को कजरी तीज भी माना जाता हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कजली मध्य भारत में स्थित एक घने जंगल का नाम था जो राजा दादूरई द्वारा शासित था। वहाँ रहने वाले लोग अपने स्थान कजली के नाम पर गाने गाते थे ताकि उनकी जगह का नाम लोकप्रिय हो सकें। कुछ समय पश्चात् तीज के दिन राजा दादूरई का निधन हो गया, तो उनकी पत्नी रानी नागमती सती हो गयी। इस दुःख में कजली नामक जगह के लोगों ने रानी नागमती को सम्मानित करने के लिए राग कजरी में गाना शुरू कर दिया और कजली के गाने पति-पत्‍नी के जनम-जनम के साथ के लिए गाए जाने लगे | इसके लिए वहाँ के लोग कजरी तीज मानते है | इस दिन घर में झूले लगाते है और महिलाएं इकठ्ठा होकर नाचती है और गाने गाती हैं।

बड़ी तीज के सिंजारे का भी बहुत महत्व होता है, इस दिन सुहागने लहरिये की साड़ी पहनती है और मेहन्दी लगाती है, अविवाहित कन्या भी मेहँदी लगाती है पर उनके लिए छोटी तीज का सिंजारा भी मत्वपूर्ण होता है और जिसके सगाई हो जाती है उनके लिए छोटी तीज पर लेहरिये की साड़ी, श्रृंगार का सामान और जेवर ससुराल से आते है | बड़ी तीज के दिन जौ, चने, चावल और गेंहूं के सत्तू का विशेष महत्त्व होता हैं। पूजा करके कहानी सुनना और फिर चंद्रमा की पूजा करने के बाद उपवास खोला जाता हैं।

बड़ी तीज पूजा की विधि और कहानी के लिए क्लिक करे -

     

 



  

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